शनिवार, 14 जून 2008

स्तनपान कराने की पद्धति


बालक को स्तनपान कराने से जो पोषण और आरोग्य विषयक लाभ होते हैं, उससे अधिक लाभ तो स्तनपान की उचित पद्धति अपनाने से होता है। स्तनपान कराना एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। इसके साथ आरोग्य व स्वस्छता भी स्पष्टताः जूड़ी हुई है। शिशु को स्तनपान करने से पूर्व माता को अपने हाथ साबुन से रगड़कर धो डालने चाहिए। तत्पश्चात् चूचुकों को कुनकुने पानी से धोकर अच्छी तरह साफ कर लेना चाहिए, साथ ही स्वच्छ कपड़े से पोंछ डालना चाहिए । इसके अलावा गर्म पानी में भिगोए हुए कपड़े से पूरे स्तनों को पोंछ डालना चाहिए। तदुपरान्त ही बच्चे को स्तनपान कराना चाहिए, अन्यथा कदापि नहीं।

माता को चाहिए कि एकान्त,शांत व खुली (हवा-प्रकाशयुक्त) वातावरण में बच्चे को स्तनपान कराए। स्तनपान मात्र शारीरिक प्रक्रिया नहीं है, बल्कि इसके साथ जच्चा और बच्चा दोनों का भावतंत्र भी सक्रिय होता है। इसलिए माता अत्यन्त शान्ति के साथ, दत्तचित होकर,प्रेम-पूर्वक, उत्तम विचारों व स्मित-उमेंग के साथ बच्चे को दूध पिलाए। जल्दबाजी, व्यग्रता, क्रोध व आक्रोश में आकर यह क्रिया न करें। ऊँची आवाज में बेलते हुए अथवा लड़ने-झगड़ने की प्रक्रिया जारी रखते हुए बच्चे को कभी स्तनपान न कराए। इन परिस्थितियों में स्तनपान करने से बच्चे को दूध पीने का कोई पोषक लाभ नहीं मिलता तथा उसके भावावेग, को शान्ति प्राप्त नहीं होती। बच्चे का का मन, मस्तिक व भावतंत्र शरीर के साथ जुड़ा हुआ होने के कारण उसे उचित, योग्य एवं प्रेरक वातावरण मिलना ही चाहिए।

जो माताएं प्रसव के लिए अस्पताल जाती हैं, उन्हें अस्पताल में ही बच्चे को स्तनपान कराना पड़ता है। अस्पताल में नसों और डॉक्टरों के अपरिचित चेहरे, रोती-चिलालाती रोगिणी एवं अन्य प्रसूताएँ, नियमों का कड़ाई से पालन, घर वालों से अलग-थलग रहना, इन सब बातों से उनका जी घुटा-घुटा सा रहता है। इस प्रकार अस्पताल मे जो घुटन की भावना बनी रहती है, वह दूध को कम कर देती है। अक्सर यह देखने में आता है कि ऐसी माताओं को अस्पताल में दूध इतना कम उतरता है कि उन्हें यह आशंका होने लगती है कि बालक का पेट भरने के लिए कहीं उनका दूध कम तो नहीं पडे़गा या कहीं उन्हे ऊपर का दूध तो नहीं पिलाना पडे़गा ? दरअसल अस्पताल के दूषित वातावरण के कारण यह सब मन पर प्रभाव पड़ता है।ऐसी माताएँ अस्पताल में अपनापन नहीं महसूस करतीं। अस्पताल से छुट्टी मिल जान पर जब वे घर आतीं हैं, तो उन्हीं माताओं को शान्ति मिलती है, आत्मीय वातावरम व स्वच्छन्दता मिलती है, तब अनायास ही उनका दूध बढ़ जाता है। कई माताओं के स्तनों से बढ़ा हुआ इतना अधिक उतरता है कि बच्चा पी नहीं पाता।

भावनाओं का दूध पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। अतएव बच्चे को दूध पिलाते समय माँ को मन में चिन्ता, शोक व क्रोध जैसी दुःखोत्पादक भावनाएँ लानी ही नहीं चाहिए। च्चे को तो हमेसा हर्ष व उल्लास के साथ हल्के मन से दूध पिलाना चाहिए। इससे भरपूर दूध उतरता है। साथ ही ऐसे दूध पिलाना चाहिए। इससे भरपूर दूध उतरता है। साथ ही ऐसे दूध से ही बच्चे का स्वास्थ्य-वर्धन होता है। धुःखोत्पादक भावनाओं के प्रभाव से दूध तो कम उतरता ही है, इसके अलावा वह दूध बच्चे के स्वस्थ्य के लिए भी हानिकारक सिद्ध होता है।

यदि किसी कारणवश स्तनपान कराने वाली माताओं का मन दुःखित, मस्तिष्क चिंतित और आत्मग्लानि हो और तभी बच्चे को दूध पिलाने का समय आ जाए, तो कुछ समय ठहर कर मन को किसी भी प्रकार से हलका कर लेना चाहिए। चाहे तो माता उस समय कोई हलकी-फुलकी बात-चीत या व्यंग-विनोद करके मन बहलाए अथवा रेडियो, टेपरिकार्ड, टी वी सुने या देखे या फिर किसी भी प्रकार से मन को प्रफुल्लित कर ले। बेहतर तो यही है कि माता को दुध पिलाने के समय से आधे घण्टे पहले से ही सावधान ही जाना चाहिए, ताकि दूध के पिलाने के लिए नियत समय को आगे-पीछे न करना पड़े।

वस्तुतः दुःखोत्पादक भावनाओं से सारे शरीर में एक प्रकार की तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इस तनाव के कारण अंग-प्रत्यंग की भिन्न-भिन्न ग्रन्थियों का ताल-मेल बिगड़ (गड़बड़ा) जाता है। फलतः स्तनों की ग्रन्थियों भी इससे दुष्प्रभावित होती हैं, अनियंत्रित होती हैं, अनियमित होती हैं, जिसके कारम दूध अपेक्षाकृत कम उतरता है। यदि माताएँ कभी-कभी दुःखोत्पादक भावनाओं में अत्यधिक डूबी रहती हैं, तब कई बार तो दूध बिल्कुल उतरता ही नहीं और स्तन तनाव के कारण भारी बने रहते हैं। मन को प्रफुल्लित करने वाली सुखोत्पादक भावनाएँ स्तन की पेशियों को ढीला तथा सक्रिय बनाती है।प्रसन्नता की लहर से दूध की ग्रन्थियाँ उत्तेजित होकर अधिक दूध स्त्राव करती हैं।

निःसंदेह माता दूध पिलाने के लिए दिन-रात, चौबीस घंटे एक ही तरीका नहीं अपना सकती। कई माताओं को लेटकर दुध पिलाने से नींद आ जाती है और दिन में घरेलू काम धंधे के कारण उन्हें झपकी लेने का समय ही नहीं मिलता । की माताओं के लिए रात्रि जागरण करना और ऊपर से बैठकर दूध पिलाना अत्यन्त कठिन काम हो जाता है। कभी-कभी ऐसा समय भी आ जाता है कि जब माता को खड़े-खड़े ही दूध पिलाना पड़ता है। इसलिए जिस समय जैसी भी सुविधा हो, वैसी ही पद्धति से दूध पिला देना चाहिए। ध्यान रहे कि जो भीतरीका अपनाएँ, वह जच्चा व बच्चा दोनों के लिए आरामदेह हो। इस सम्बन्ध में कड़ाई स कोई नियम पालन करना आवश्यक नहीं। साथ ही एक ही तरीका अपनाने से बच्चा उसी तरीके से दूध पीने का अभ्यासी हो जाता है। इस कारण अन्य तरीके से दूध पीने में वह असुविधा महसूस करता है और भरपेट दूध नहीं पी सकता। इसलिए वही पद्धति सर्वोत्तम है, जिसमें माता आराम से पिला सके और बच्चा आराम से पी सके।

प्रसव के उपरान्त माता अत्यन्त दुर्बल हो जाती है तथा उसके शरीर में पर्याप्त मात्रा में शक्ति नहीं होती है। जब तक प्रसूता में इतनी ताकत नहीं आ जाती कि वह अपने बच्चे को बैठकर दूध पिला सके, तब तक उसे लेटकर ही दूध पिलाना चाहिए। माता को चाहिए कि जिस ओर शिशु लेटा हो, उस ओर करवट लेकर स्तनमुख को उसके मुँह में दे दे। शिशु के मुँह में स्तनमुख पहुँचते ही वह स्वाभाविक रीति से उसे चूसने लगता है। उसे स्तनपान करने के लिए सिखाने-पढ़ाने की कोई आवश्यकता नहीं होती।

जब माता उठने बैठने योग्य हो जाए, तो लेटकर दूध नहीं पिलाना चाहिए। क्योंकि लेटकर दूध पिलाने से जो दूध बच्चे के मुँह में जाता है, उसका कुछ भाग प्रायः मुँह के अन्दर से होता हुआ उसके कान के भीतरी भाग तक पहुँच जाता है । इससे बच्चे के कान बहने लगते हैं। साथ हीकान सम्बन्धी और भी रोग हो जाते हैं। इसलिए बच्चे को हमेशा बैठकर ही दूध पिलाना सर्वोत्तम होता है। बैठकर दूध पिलाने का भीएक निश्चित आसन होता है। जिस घुटने पर बच्चे का सिर हो, उसे कुछ इस प्रकार ऊँचा कर लेना चाहिए कि बच्चे का मुँह स्तन तक आसानी से पहुंच सके। बच्चे के सिर नीचे अपना हाथ पर प्रकार लगा लेना चाहिए कि उसे दूध पीने में कोई असुविधा न हो, जैसा कि पीछे पृष्ठ क्रमांक 74 में चित्र द्वारा स्पष्ट दिखाया गया है।

बच्चे के पेट में दूध के साथ-साथ कभी-कभी हवा का प्रवेश भी हो जाता है। दूध पिलाने के बाद बच्चे को कन्धे से लगाकर उसकी पीठ को हल्के से थपथपाना चाहिए । साथ ही जब तक डकार न आ जाए, नीचे की ओर से ऊपर की ओर धीरे-धीरे पीठ को सहलाते रहना चाहिए। इससे वायु विकार रोकने में काफी सहायता मिलती है।

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