शनिवार, 14 जून 2008

नारी स्तनों की रचना तथा कार्यप्रणाली


सर्वविदित है कि हमारी त्वचा में पसीना उत्पन्न करने वाली असंख्य सूक्ष्म नन्हीं-नन्हीं ग्रन्थियाँ होती हैं। वस्ततः नारी के स्तन भी पसीने की ही ग्रन्थियाँ हैं, जिन्हें प्रकृति ने अत्यन्त जटिल, संशोधित और विस्तृत आकार दे दिया है। ये ग्रन्थियाँ विभिन्न खाद्य पदार्थों के पोषक व पौष्टिक तत्वों को दूध में परिवर्तित कर देती हैं। दूध बनने की प्रक्रिया अत्यन्त गूढ़ व जटिल है। हमारा ज्ञान तो सीमित व अपूर्ण है ही, वैज्ञानिक भी दूध बनने की विधि को आज दिनांक तक पूर्णतः नहीं समझ पाए हैं।

दस-बारह वर्ष की आयु तक कन्या के स्तन सुप्त अवस्था में रहते हैं। तदुपरान्त हारमोन्स के खेल प्रारम्भ हो जाते हैं, उसकी डिंब ग्रन्थियाँ परिपक्व होने लगती हैं तथा उनके अन्दर मौजूद हारमोन्स के प्रभाव से स्तन विकसित होने लगते हैं। स्तनों में चर्बी (वसा) की परतें चढ़ने लगती हैं, (जहाँ यह अप्रासंगिक नही होगा कि स्तन में अधिक अंश चर्बीं का ही होता है) स्तन धीरे-धीरे बड़े होने लगते है, चूचुक (निपल) स्पष्ट दिखाई देने लगते है। चूचुक के चारों और का गोल घेरा (चूचुक मण्डल) गुलाबी रंग का हो जाता है।

स्तन की ग्रन्थि संरचना भी बेहद दिलचस्प है । प्रत्येक स्तन में दूध उत्पादन करने वाले लगभग 17 स्वतन्त्र कोश (सैल या यूनिट) होते हैं। कुछ महिलाओं में इससे कम और कुछ में अधिक होते हैं। प्रत्येक यूनिट झरबेरी (जंगली बेर के झाड़-झुरमुट) के रूप में होता है। इसमे हजारों की संख्या में उपस्थित सूक्ष्म वायुकोशों (दुग्ध उत्पादन ग्रन्थियों) में दूध की जो अदृश्य बूंदें निर्मित होती हैं वे उप-शाखाओं में आती हैं और अन्ततः वे मुख्य नलिका में आ जाती हैं। ये 17 नलिकाएँ चुचुक में आकर मिलती हैं। स्तनों में एकचित्र चर्बीं की परतें इन नाजुक पुर्जों के रक्षा कवच का कार्य करती हैं। स्तनों को वक्षस्थल के साथ बाँधे रखने के लिए मांस से निर्मित डोरियों (संयोजी ऊतकों) का एक जाल सा चारों ओर फैला रहता है, जो एक प्रकार से आन्तरिक चोली का काम करता है।

स्तन लगभग पूर्ण से हारमोन्स के नियंत्रण में कार्य करते हैं। मासिक धर्म शुरू होने से पहले हारमोन्स के प्रभाव से स्तन फूल जाते हैं। तथा अपेक्षाकृत अधिक संवेदनशील हो जाते हैं। स्तन का वास्तविक कार्य तब आरम्भ होता है, जब महिला प्रथम बार गर्भवती होती है, उस समय प्लेसेंटा (आंवल अथवा जेर-जो बच्चे और गर्भाशय से सम्बन्ध बनाए रखती है) में पाए जाने वाले हारमोन्स स्तनों को जगा देते हैं। इस्ट्रोजेन हारमोन दुग्ध नली संस्थान को उद्दीपन देकर उसकी वृद्धि करता है और प्रोजिस्टिरोन (गर्भस्थापक) हारमोन झरबेरी जैसी रचना वाली दुग्ध उत्पादक ग्रन्थियों का विकार करके उन्हें सक्षम बनाने लगता है।

इसी समय रक्तवाहिनियाँ (शिराएँ व धमनियाँ) अपने जाल को बढ़ा देती हैं। स्तनों के ऊपर नीले रंग की शिराएँ दिखाई देने लगती हैं। स्तनों का भआर दुगुना बढ़ जाता है। जैसे-जैसे प्रसवकाल निकट आने लगता है, स्तनों के अन्दर एक बढ़े घर की सफाई जैसा कार्य आरंभ होता है। इससे पूर्व तक दुग्ध उत्पादक गन्थियों में एक कठोर और रेशेदार पदार्थ भरा रहता था, जिसके कारण स्तन कठोर थे। अब यह आवश्यक हो जाता है कि इस कठोर पदार्थ को घोलकर समाप्त कर दिया जाए। ताकि दूध एकत्रित होने के लिए स्थान बन सके।

जब बच्चा जन्म ले लेता है, तो प्रोलैक्टिन नामक एक नया हारमोन बनने लगता है। इसका निर्माण मस्तिक के नीचे के भाग में स्थित पूयूष ग्रन्थि में होता है। यह हारमोन स्तन के अंदर दूध का संचालक करता है। प्रारम्भ में स्तनों में सेपीले रंग का गाढ़ा द्व। जैसा दूध निकलता है, जिसे “खीस” कहते हैं, लेकिन कुछ दिनों में ही स्तनों में से लगभग आधा लीटर दूध प्रतिदिन बनने लगता है। बच्चे के लिए इस आदर्स भोजन (माँ का दूध) का उत्पादन करने के लिए प्रतिदिन कई लीटर रूधिर स्तनों के मार्ग से होकर जाता है। रुधिर में से स्तनों के वायुकोश रुधिर की सर्करा अर्थात् ग्लूकोन चूस लेते हैं और स्तनों में पाए जाने वाले ऐन्जाइम इस ग्लूकोज को लैक्टोज तथा अन्य शर्कराओं में परिवर्तित कर देते हैं, जिनकी नवजात शिशु को आवश्यकता होता है। ये ही ऐन्जाइम एमिनों एसिड दूध में पाई जाने वाली प्रोटीन का निर्माण करते हैं । यह एसिड दूध में पाई जाने वाली प्रोटीन का निर्माण करते हैं। यह प्रोटीन बच्चे के बढ़ने के लिए आवश्यक है। वताओं का रूप भी इसी प्रकार परिवर्तित करके शिशु के लिए सुपाच्य बना लिया जाता है। दुग्ध उत्पादक ग्रन्थियाँ अपने निकट से होकर जाते हुए रुधिर में से करके दूध में मिलादेती है। ताकि बच्चा वायरसजनित रोगों तथा आँतों के रोगों से बचा रहे ।

प्रसव के बाद चूचुक मण्डल गहरे रंग का तथा मोटा हो जाता है, क्योंकि इस समय चिकनाई पैदा करने वाली चर्बीं की असंख्य सूक्ष्म ग्रन्थियाँ इस स्थान में उत्पान्न हो जाती हैं। ये ग्रन्थियाँ चूचुक को बराबर चिकनाई पहुँचाती रहती हैं, जिससे बच्चों के बारम्बार चूसने से चूचुक कटते नहीं। चूचुक ऊतकों से निर्मित होते हैं। जब बच्चा स्तन में मुँह लगाता है, तो ये ऊतर तन कर कठोर हो जाते हैं और बच्चे का छोसा-सा मुँह चूचुक को अच्छी तरह पकड़ लेता है । जब बच्चा चूचुक को चूसता है, तो तत्काल दूध आन लगता है।

चूचुक के थोड़े से पीछे दुग्ध नलिकाएँ (दूध के पेड़ की शाखाएँ ) कुछ चौड़ी हो जाती हैं या यों कहें कि यहाँ एक छोटा सा दूध का भण्डार (टंकी) बन जाता है, जिसमें से दूध तुरन्त ही भूखे बच्चे के मुँह में पहुँचता रहता है। यह नन्हीं-सी टंकी कुछ ही सेकण्डों में दूध से खाली हो जाती है, लेकिन चूचुक में बहुत सी संवेदी तंत्रिकाएँ होती हैं, जो मस्तिष्क में स्थित पीयूष ग्रन्थि को समाचार भेज देती हैं कि टंकी का दूध समाप्त हो गया । यह समाचार पाते ही मात्र 30 सेकण्ड के अन्दर पीयूष ग्रन्थि आक्सीटोसिन हारमोन को महिला के रुधिर में उड़ेल देती है। जैसे ही यह पदार्थ स्तन में दुग्ध उत्पादन ग्रन्थियोंके पास पहुँचता है, ये ग्रन्थियाँ इसे चूस कर अपने अन्दर बन्द कर लेती हैं और दूध को तेजी के साथ बाहर निकालने लगती हैं । इस समय से आगे बच्चे को चूचुक चूसने की जरूरत नहीं रहती, वह केवल दूध पीता रहता है, जैसे हम लोग गिलास से दूध पीते हैं । प्रारम्भिक दिनों में प्रसूता के स्तनों से प्रतिदिन लगभग आधा लीटर दूध निकलता है, जो तीन किलों वजन तक के बच्चे के लिए काफी होता है, लेकिन ज्यों-ज्यों बच्चा बड़ता जाता है, स्तनों में दूध का उत्पादन भी बढ़ता जाता है। कुछ महिलाएँ प्रतिदिन तीन लीटर तक दुग्ध उत्पादन कर लेती है ।

कोई टिप्पणी नहीं: