शनिवार, 14 जून 2008

आखिर स्तन-पान ही अमृत-तुल्य क्यों ?



यदि माँ की खुराक बहुत कम हो तथा वह स्वयं कुपोषण की शिकार हो, तो भी उसी का दूध ही सन्ता के लिए सर्वोत्कृष्ट है। यहाँ सवाल पैदा होता है कि जिस परिवार की आर्थिक स्थिति ऐसी हो, जहां माता स्वयं कुपोषण की शिकार हो, वह बच्चे के लिए विकल्प आहार कहाँ से जुटा पायेगी ? इससे बेहतर तो यही होगा कि वह अपने आहार पर खर्च करे और बच्चे को अपना ही दूध पिलाये। यदि माता अतिरिक्त पौष्टिक आहार न ले रही हो, तो भी उसी का दूध ही बच्चे के लिए सर्वेत्तम होता है। दूध उत्पन्न करने के लिए महँगे फल, दूध या अन्य पौष्टिक आहार लेना ही चाहिए, यह विचार बिल्कुल गलत है। यह ध्या रहे किमाता अपने प्रत्येक खाद्य पदार्थ को दूध में बदलने की क्षमता रखती है। अपना दूध पिलाने से माता और शिशु दोनों को पिछले पृष्ठों अथवा पिछले प्रकरणों में वर्षित तमाम फायदों के अतिरिक्त निम्नानुसार अन्य अनेकानेक लाभ होते हैं-
(1)स्तनपान से माता के गर्भाशय में तालबद्ध सिकुड़न होने लगती है। प्रसूता का गर्भाशय, जो बड़ी भारी थैली का रूप धारण कर चुका था, जिसमें बच्चा आ सके, इन तालबद्ध सिकड़नों के कारण क्रमशः छोटा होकर अपने साधारण (नाशपाती क बराबर) आकार में आ जाता है। इन तालबद्ध सिकुड़नों से अधिक समय तक गर्भाशय से रुधिर निकलते रहने का खतरा भी कम हो जाता है तथा प्रसूता को हलकी-हलकी सैक्स सुखानुभूति भी होती रहती है।
(2) स्तनपान से प्रसूता गर्भधारण से पूर्व जैसी स्वरूपा, शारीरिक शक्ति व सौन्दर्य अपेक्षाकृत अधिक शीघ्रता से प्राप्त कर लेती है। गर्भ के दिनों में ही नहीं, प्रसव काल में ही नहीं, प्रसव काल में भी अधिकतर खून शरीर के निचले भाग की ओर जाता रहता है और स्तनपान कराने से यह ऊपर (स्तन) की ओर अपेक्षाकृत अधिक शीघ्रता से जाने लगता है। फलतः शरीर का निचला भाग आवश्यकतानुसार संकुचित होता जाता है और ऊपरी भाग (वक्षस्थ) आवश्यकतानुसार संकुचित होता जाता है और ऊपरी भाग (वक्षस्थल) आवश्यकतानुसार पुष्ट और सुगठित।
(3) बच्चे के दूध पीने से माता के उन हारमोन्स में हरकत होती है, जिनसे गर्भ धारण करने में विलंब होता है। इसलिए स्तनपान कराने वाली माताएँ बहुत जल्दी गर्भवती नहीं होती।
(4) मातृत्व नारी की महिमा भी है तथा नारी जीवन का चरम लक्ष्य भी। नारी का जन्म वस्तुतः मातृत्व द्वारा ही धन्य होता है। मां का पद प्राप्त करते ही अखिल विश्व की समस्त करुणा, ममता और मंगल कामना की त्रिवेणी नारी के व्यक्तित्व में समाहित हो जाती है। मातृत्व नारी की गोद की शोभा है। इससे वंचित होने पर नारी अपने जीवन को श्रीहीन तथा निरर्थक समझने लगती है। निपूती अथवा बाँझ कहा जाना उसको कदापि सहन नहीं होता। मातृत्व पद नारी की सबसे बड़ी कमजोरी है। उसकी प्राप्ति के लिए नारी सब कुछ करने को तैयार हो जाती है। माता बनने का प्रलोभन अनेक महिलाओं को पथभ्रष्ट व चरित्रभ्रष्ट तक कर देता है। इतना ही नहीं, वे कर्कश, निर्मम और कुण्ठाग्रस्त होकर हत्या जैसे जघन्य अपराध तक करने को प्रवृत हो जाती हैं। अर्थात् नारी अत्यन्त गंभीर, भ्रमक तता जटिल समस्या है, जिसका एकमात्र समाधान संतान है। मातृत्व सृष्टि परम्परा के प्रवाह को बनाए रखने की निःस्वार्थ साधना है, इसीलिए वह अभिनन्दनीय भी है और वन्दनीय भी।

माता का दूध मानव जाती का जीवन स्त्रोत है, इसलिए भी और माँ को अपनी मातृत्व की सुरक्षा के लिए भी स्तनपान आवश्यक है। छः महीने तक या उससे अधिक अवधि तक माता का दूध पीने वाले बच्चों की तुलना में जो छः महीने से कम अवधि तक माता का दूध,पशु का दूध अथवा डब्बे का दूध पीते हैं, ऐसे बच्चों की मृत्यु-दर पाँच से दस गुना अधिक है। दूसरे शब्दों में, जो बच्चे अपनी माँ के दूध से पलते हैं उनकी औसत मृत्यु बहुत कम होती है।

एक दिन दो महिलाएँ झगड़ती हुई न्यायालय में पहुँची। उनके साथ एक बालक था। दोनों महिलाएँ उस बालक को अपना बेटा बता रही थीं। उन्होंने न्यायालधीश से अपील की कि वह उनका फैसवला कर दें। न्यायाधीश ने कहा-तुम्हारी बातें सुनने के बाद मैं यह निश्चय करने में असमर्थ हूँ कि तुम दोनों में से इसकी असली माता कौन ?अतएव क्यों न बालक के दो टुकड़े कर दिए जाएँ और तुम दोनों को एक-एक टुकड़ा दे दिया जाए ? यह सुनते ही एक महिला ने अन्य महिला की ओर संकेत करते हुए कहा कि यह बालक इसी को दे दें, क्योंकि मुझे बालक का आधा हिस्सा नहीं चाहिए। न्यायमूर्ति समझ गए कि बालक इसी का है, क्योंकि इसके लिए बालक का जीवित रहना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। परिणामस्वरूप न्यायाधीश न इसी महिला को बालक देने का आदेश दिया।

माँ सिर्फ यह चाहती है कि उसकी संतान जहाँ भी रहे, जीवित रहे, सुख शाति से रहे और स्वस्थ रहे । बकरी, गाय, भैंस अथवा बातल का प्रयोग करना खतरे को बुलावा देना है। बोतल का प्रयोग करने वाले शिशुओं में स्तनपान करने वाले शिशुओं की तुलना में दस्त करने की बीमारी तीन गुनी अधिक होती है।
(6) जन्म से पूर्व बालक को आवश्यक भोजन सीधे माता के पेट से ही मिलता रहता है। तत्समय बालक का आमाशय काम नहीं करता । बालक का आमाशय जन्म के बाद काम करना प्रारम्भ करता है और वह धीरे-धीरे दूध को पचान की विधि सीखता है। जन्म के बाद भोजन बालक के मुँह, गले, आमाशय व अँतड़ियों में से होकर गुजरता है और फालतू मल अँतड़ियों व गुर्दों की सहायता से बाहर फेंक दिया जाता है। माता का दूध अपेक्षाकृत अधिक भारी होता है, क्योंकि उसमें मांस (प्रोटीन) बनाने वाले तत्व अधिर मात्रा में होते हैं। ऐसे दूध में मक्खन के कण भी अधिक स्थूल होते हैं, जिन्हें पचाना बालक के लिए कठिन होता है और मां के दूध में मक्खन आवश्यकतानुसार छोटे-छोटे कणों के रूप में होता है, जिसको पचाना बालक के लिए सरल होता है।

(7) विधाता ने शिशु को माँ के दूध के रूप में पूर्ण भोजन प्रदान किया है। दूसरा कोई भी कृत्रिम भोजन इसके तुल्य गुणों वाला नहीं बनाया जा सकता । गाय का दूध बछड़े के लिए बनाया गया है, मानव शिशु के लिए कदापि नहीं । उसे किसी भी प्रकार से माता के दूध के बराबर नहीं कहा जा सकता। डब्बा दूध बनाने वालों के विज्ञापन चाहे कितने ही दावें करें, माता के दूध के सिर्फ माता का स्तन ही बना सकता है। किसी भी प्राणी के बच्चे की शारीरिक पुष्टि के लिए जैसा-जैसा आहार चाहिए प्रकृति ने उसकी माता के दूध मे ही उसे उपलब्ध कराया है। दूसरे प्राणी के दूध में वे तत्व उसी मात्रा में कभी नहीं मिल सकते ।

(8) माता का दूध सर्वथा उपयुक्त तथा दोष रहित होता है। इसमें किसी भी प्रकार के हानिकारक कीटाणु नहीं होते । इसमें प्रोटीन सर्वोत्तम श्रेणी का होता है। इसमें फास्पोरस और कैल्शियम का अनुपात ठीक होता है। इसमें उपस्थित लोहा पूर्णतः अवशोषित हो जाता है। इस सबके अलावा इसमें अँतड़ियों मे सहजीवी कीटाणुओं को बढ़ाने वाले पदार्थ होते हैं।
(9) माता के दूध पर पलने वाले शिशुओं में बीमारियों का मुकाबला करने की शक्ति बहुत अधिक होती है। बोतलों के दूध या किसी अन्य दूध पर पलने वाले शिशुओं में रोगों के मुकाबले की शक्ति कम होती है। इसमें एंटीवॉडी और अन्य ऐसे पदार्थ होते हैं, जो प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाते हैं।

(10) माँ का दूध पीने वाले बच्चों में बीमारियाँ अपेक्षाकृत कम होती है। मां का दूध बच्चे की पाचन शक्ति एवं शारीरिक विकास की आवश्यकता के अनुकूल सम्पूर्ण आहार है। इसमे प्रोटीन कार्बोहाइड्रेट, वसा, खनिज, विटामिनों के अतिरिक्त ठम्यूनो ग्लोबुलिन जैसे छूत रोधी तत्व बी होते हैं, जो बच्चों को जुकाम, खाँसी, दस्त, दमा एवं एग्जीमा जैसी एलर्जी से होने वाली बीमारियों से बचाते हैं। साथ ही माँ का दूध बिना स्टरलाइज किए विशुद्ध होता है तथा हर समय ताजा मिल सकता है।
(11)माता का दूध बच्चे के लिए उसके तापमान के अनुसार जितना गर्म होता चाहिए, उतना ही गर्म भी होता है। इसके अलावा मां का दूध सहज ही प्राप्त है।
(12)जब बच्चा अपनी माता का स्तन चूसता रहता है, तब उसे तृप्ति मिलती रहती है और वह अपने हाथ-पाँव भी इधर-उधर मारता रहता है। इससे उसके सम्पूर्ण शरीर का व्यायाम हो जाता है। साथ ही माता का दूध चूसने से बच्चे के मुँह के सारे पट्ठों का भी व्यायाम हो जाता है। उसके जबड़ों में खून अधिक आ जाता है। इससे भविष्य में बच्चे को दाँत निकलने में सहायता मिलती है।

(13) आर्थिक दृष्टिकोण से भी माता का दूध सबस सस्ता है। इससे धनराशि की काफी बचत होती है। यदि सही अनुपात में । डब्बे का दूध तैयार करें, तो एक डब्बा औसत चार दिन चलता है। अर्थात् प्रति माह लगभग तीन-चार सौ रुपये का अतिरिक्त खर्च । गाय व भैंस का दूध भी इससे कम महँगा नहीं। ऐसे फिजूल खर्च दुगुने पड़ते हैं । जैसे एक तो अनावश्यक वस्तुओं में उतने खर्च करने पड़ते हैं और दूसरे यदि वह नहीं खरीदते, तो उतने की अन्य आवश्यक वस्तुएँ घर में आ जातीं। अन्य दूध पिलाने वाले परिवार पर पड़ने वाले इस अतिरिक्त बोझ की जरा कल्पना कीजिए। इतना ही नहीं, ऊपर से अनेकानेक दुष्परिणाम, बीमारी, खरता, डॉक्टर की फीस, दवाई-सुई वगैरह का अधिकाधिक खर्च। वर्तमान में लगभग पचहत्तर प्रतिशत परिवार की आर्थिक स्थिति वैसे भी सुदृढ़ नहीं है। ऐसे में यह सौदा किसी भी शर्त पर फायदेमेंद नहीं।

(14) ज्यादा न सही, कम सही, लेकिन बोतल का दूध तैयार करने में समय तो लगना ही है।साथ ही परिश्रम से कैसे बच सकते हैं ? भगवान न करे, यदि ब्चा बीमार हो गया, तो परेशानी अलगा कितनाकष्ट झेलना पड़ता है तथा कितना समय लगता है, इसका हकीकत में कोई हिसाब नहीं।

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