शनिवार, 14 जून 2008

अमृत-तुल्य स्तन-पान


हरेक माता-पिता की यही हार्दिक इच्छा रहती है कि नका बालक स्वस्थ व हृष्ट-पष्ट हो । जब वे अपने बालक को प्रसन्न-मुख उत्साह से किलकारी मारते हुए चांचल्यपूर्ण चपलता प्रदर्शित करते हुए देखते हैं तो उनका अन्तःकरण इत आनन्द से भर उठता है। यदि बालक दर्बल, सुस्त, अस्वस्थ एवं कान्तिहीन है तो उनका हृदय किसी अज्ञात आशंका से भर जाता है और वे इसी चिन्ता में रहते हैं कि येन-केन प्रकारेँ उनका बालक स्वास्त्य लाभ कर सके । यद्यपि शिशु का स्वास्थ्य माता-पिता के स्वास्थ्य पर निर्भर करता है, तथापि शिशु का आहार सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि सन्तुलित आहार से ही शिशु स्वस्थ रह सकता है।उचित आहार शिशु की शारीरिक वृद्धि व विकास में सहायक होता है और पौष्टिक आहार जीवन बनाये रखन हेतु ताप की उत्पत्ति करता है तथा शिशु के विभिन्न कार्य-कलापों से जो शक्ति ह्वांस हो जाती है, उसकी भी पूर्ति करता है।

अन्तर्राष्टीय प्रसूति स्त्रियों के संघ, अन्तर्राष्ट्रीय आरोग्य संघ, युनिसेफतथा बाल रोग-विशेषज्ञों का स्पष्ट मत है कि नवजात शिशु के लिए उसकी माता का दूध ही एक सर्वोत्तम आहार है, प्रकृति प्रदत्त एक सर्वोत्तम उपहार है। पोषण की दृष्टि स माता के दूध की तुलना में अन्य कोई दूध या आहार निरर्थक है, व्यर्थ है। बच्चे के सम्पूर्ण विकास व वृद्धि के लिए आवश्यक सभी पोषक तत्व माता के दूध से भरपूर मात्रा में उपलब्ध होते हैं। माता के दूध में नवजात शिशु की वृद्धि के आवश्यक सभी पदार्थ –जैसे-प्रोटीन, विटामिन, कार्बोहाइड्रेट्स, फेट, कैलशियम, फास्फोरस, वाटर आदि सभी प्राप्त होते हैं। यह शिशु की जीवन शक्ति की व्यापकता, शरीर वृद्धि की उच्चता और स्वास्थ्य की स्थिरता के लिए सर्वगुण सम्पन्न है। उसमें शिशु के पोषण की अद्भुत क्षमता होती है। अतएव शिशु के लिए माता का स्तनपान अमृततुल्य है।

नवजात शिशु के पाचक अंक अत्यन्त अपरिपक्व अवस्था में होते हैं। वे किसी भी अन्य वस्तु को पचाने में समर्थ नहीं होते हैं, लेकिन केवल माता का ही दूध ऐसा होता है जो इन अपरिपक्व अंगों से भी सुगमतापूर्वक पच जाता है। शिशु के लिए ईश्वर की ओर से पकाया गया सबसे उत्तम भोजन माता का दूध ही है। प्रारम्भ में माता का दूध पतला होता है तथा शिशु के पाचक अंगों में बल आने के साथ क्रमशः गाढ़ा होने लगता है और सकी मात्रा भी धीरे-धीरे बढ़ने लगती है। सन्तान क प्रति माता का हृदय सदैव ममता, प्यार, दुलार तथा सुखद भावनाओं से परिपिलावित होता है। माता के हृदय में प्रेम के सथ ही साथ दुध भी उमड़ता रहता है। जब वह शिशु को प्रेमपूर्वक दूध पिलाती है, तब इससे मात्र बालक की उदर-पूर्ति ही नहीं होती, अपितु उसका हृदय भी तृप्त होता है और मस्तिक भी प्रफुल्लित होता है तता उसका अंग-अंग पुष्ट होता है। इस प्रकार स्तनपान जच्चा और बच्चा दोनों के लिए अमृतोपम होता है।

सन्तानोत्पति के पश्चात् जच्चा और बच्चा दोनों के सम्बन्ध वैसे ही बने रहते हैं, जैसे पैदा होने के पूर्व रहते हैं। अन्तर केवल इतना ही होता है कि नौ मास तक तो माता बालक को अपने रक्त से पालती है और नौ मास के बाद उसे अपना दूध रूपी अमृत पिलाकर हृष्ट-पुष्ट बनाती है। शिशु के जन्म के पश्चात् ही माता के स्तनों में दूध उमड़ आता है और शिशु को जब स्नान कराकर माता दूध पिलाती है, तब उसे भी एक स्वाभाविक आनन्द का अनुभव होता है। शिशु के जन्म के बाद प्रथम दो दिनों तक का दूध कुछ भिन्न होता है। उसमें प्रोटीन अधिक होती है। इसके अतिररिक्त शिशु के पेट में वह जुलाब का काम करता है। परिणामस्वरूप जो कुछ मल इत्यादि बालक के पेट में होता है, वह इस दूध के प्रभाव से स्वयं ही निकल जाता है।

प्रत्येक स्वस्थ प्रसूता के स्तन से पहले तीन से छह दिनों तक पूर्ण मात्रा में परिपक्व दूध पैदा होने के पहले अल्प मात्रा मे गाढ़ा पीला-सा दूध जैसा चिकना व तरल पदार्थ पैदा होता है, जिसे खीस या पियूष कोलेस्ट्रस) कहते हैं। इसमें काफी मात्रा में पोषक तत्व तथा छूत रोधी तत्व होते हैं। यह खीस बच्चे के लिए अत्यधिक लाभदायक है। यद्यपि यह बहुत कम मात्रा में निकलता है, तथापि पहले तीन दिन तक शिशु की आवश्यकताओं के लिए पर्याप्त होता है। बच्चा है। बच्चा व जच्चा दोनों को पास-पास रखने तता स्तनपान कराते रहने से शिशु को लाभकारी पीयूष अधिक मात्रा मे पीने का मौका मिलता है, साथ ही माता का प्राकृतिक दूध भी जल्दी उतरने लगता है। इसके अतिरिक्त स्तनपान जल्दी शुरू कर देने से शिशु अपने को अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित महसूस करता है और माता का लगाव अधिक पुष्ट होता है। जन्म के तुरन्त बाद शिशु और माँ जितना ज्यादा पास रहते हैं, उनका आपसी सम्बन्ध उतना ही अधिक प्रगाढ़ होता है। इसलिए बच्चे के जन्म के बाद माता को चाहिए कि वह जितनी जल्दी हो सके, उतनी जल्दी खीस पिलाना शुरू कर दे। सामान्यतः जन्म के 45 मिनट के अन्दर ही बच्चों को स्तनपान प्रारम्भ करवा देना चाहिए।

खीस नवजात शिशु के लिए अत्यन्त पोषक होता है। इसमें नवजात शिशु की रोगों से रक्षा करने के लिए कुछ विशेष प्रतिरक्षक तत्व भी होते हैं। यह प्रोटीन और विटामिन से भरपूर होता है। प्रति 100 मि। लि। फेट (चरबी या स्निग्धांश) और 20 मि।लि। स्टार्च अवस्थित रहता है। प्रारंभिक दिनों में नवजात शिशुओं को पीयूष देने से अग्रांकित लाभ होते हैं-
(1) पीयूष में रोग प्रतिकारक शक्ति होने से शिशुओं को अनेक रोगों से रक्षण प्राप्त होता है। सर्दी, खाँसी, जुकाम, कान पकना, दस्त और पोलिओ जैसे रोगों से बच्चों का प्राकृतिक ढंग से रक्षण होता है। पीयूष से बच्चे को दस्त साफ आता है, उनको कब्जियत नहीं रहती और उनके पेट में स्थित काले रंग का मलद्रव्य सरलता से बाहर निकल जाता है। इसमें चर्मरोग , एलर्जी, दमा आदि बड़ी उम्र में होने वाली तकलीफों के खिलाफ भी बच्चों को सूरक्षा मिलती है। अतएव स्पष्ट है कि खीस एक प्रकार का रोग प्रतिकारक टीका है।
(2) खीस से बच्चों की पाचन शक्ति बढ़ती है। इससे बच्चों की आँत में पाचक रस तैयार होता है, जो उम्र बढ़ने पर दूध अथवा फल आदि को पचाने में सहायता करता है और अन्य आहार का कोई प्रति-प्रभाव नहीं होने देता।
(3) इससे बच्चों की आँत में सुरक्षात्मक सूक्ष्म कीटाणु उत्पन्न होते है, जिससे आगे चलकर अन्नपाचन तथ शोषम-क्रिया सुगम हो जाती है। इसलिए प्रत्येक समझदार प्रसूता को चाहिए कि वह अपने बच्चों को यह पीयूष प्रारंभिक दिनों में अवश्य दे। क्योंकि एक तो नवजात शिशुओं को सम्पूर्ण विकास व वृद्धि के लिए आवश्यक सभी पोषक तत्व इसमें भरपूर मात्रा में विद्यामान रहते हैं और दूसरा, यह केवल नवजात शिशुओं के लिए प्रकृति प्रदत्त अर्वोत्तम उपहार है। अर्थात् पीयूष पर बच्चों का जन्म सिद्ध अधिकार है। इसलिए किसी भी कीमत पर बच्चों को उनके प्राकृतिक अधिकार से वंचित नहीं किया जाना चाहिए।

आजकल अधिकतर माता-पिता की पहली शिकायत यही होती है कि नका बच्चा रात-भर सोने नहीं देता। चाहे जब रोना शुरू कर देता है। प्रत्येक नवजात शिशु की अपनी जन्मजात आवश्यकताएँ हैं, अधिकार हैं। उसकी विवशता यह है कि उसका कोई प्रवक्ता नहीं और उसकी मजबूरी यह है किवह स्वयं बोल सकता नहीं। फसतः होता यह है कि उसकी देखभाल की अपेक्षा उसकी देखभाल करने वालों की सुविधा को प्राथमिकता मिलती है। आवश्यक वस्तुओं का उपभोग स्वयं माता-पिता या उनके प्रतिनिधि करते हैं और अनावश्यक वस्तुओं को बच्चों के हवाले कर देते हैं। और अनावश्यक वस्तुओं को बच्चों के हवाले कर देते हैं। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि माता-पिता पलंग में और बच्चा पलंग से बाहर झूले में रात्रि विश्राम करता है, जबकि एक वर्ष तक माँ-बेटे को पलंग में और पिता को कमरे से बाहर मौसम के अनुसार दूसरे कमरे, बरामदे अथवा आँगन में रात्रि विश्राम करना चाहिए। संयोेगवश यदि बच्चे को माता-पिता के साथ पलंग में रात्रि विक्षाम का अवसर मिल गया, तो भी अक्सर होता यह है कि पति के हाथ में स्तन और बच्चे के हाथ में बोतल, जबकि हकीकत में यह अत्यन्त अशोभनीय अप्रशंसनीय तथा अवांछनीय बात है। वस्तुतः स्तनपान उसका प्राकृतिक आहार और जन्म सिद्ध अधिकार है। इसी प्राकृतिक आहार और जन्मजात अधिकार से जब को वंचित कर दिया जाता है, तब वह अपने वास्तविक विधाता के समक्ष विधिवत चिल्ला-चिल्लाकर दलील प्रस्तुत करता है, हकीकर में वह रोता नहीं । उसकीभाषा को समझ पाना सामान्य मानव के बस की बात नहीं। जिस माता-पिता ने उसकी भाषा को समजा है, उसकी प्राकृतिक आवश्यकताओं की पूर्तिकी है और उसके अधिकार उसे उपलब्ध कराए हैं, वह बच्चा कभी नहीं रोता। गहरी नींद लेता है और चैन की बंसी बजाता है।

प्रकृति की इस अनुपम भेंट स्तनपान और उसके अधिकारी बच्चें के बीच न जाने कितने अंधविश्वास, रूढ़िवादिता, आधुनिकता इत्यादि रोड़े हैं, जो न केवल बच्चों के लिए, वरन् माता-पिता के लिए भी सिरदर्द हैं। प्रकृति ने हर प्रजाति के लिए विशिष्ट गुणधर्म वाला दूध बनाया है। इसी लिहाज से यह सवयं ही समझ में आने वाली बात है कि मानव जाति को मानव जाति का दूध ही मिलना चाहिए। प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या आवश्यकता ? प्रत्येक प्रजाति की प्रसूता अपने ही बच्चे को दूध पिलाती है। इसलिए मनुष्य जाति की महिलाओं को भी चाहिए कि वे अपने बच्चे को अपना ही दूध पिलाएँ । मात्र मनुष्य ही नहीं, जितने भी स्तनधारी जीव-जन्तु हैं, उनमें से कोई भी मादा अन्य जीव-जन्तुओं के बच्चो को अपना स्तनपान नहीं कराती, जब तक विवशतावश अन्य प्राणी की जीवन रक्षा के लिए उसे ऐसा करना न पड़े। जब कोई महिला पड़वे, बछड़े व मेमने को अपना दूध नहीं पिलाती,तब कोकई महिला द्वारा अपने बच्चे को भैंस, गाय अथवा भेड़ का दूध पिलाना कहाँ तक तर्क संगत है ? यह बच्चे के साथ अन्याय नहीं तो और क्या है ? क्रूरता नहीं तो और क्या है ?

वस्तुतः बकरी गाय व भैंस का दूध और उसकी संरचना मूलतः अपने-अपने बच्चों की बढ़त की त्वरित गति के अनुरूप है, जो अपने बढ़वार का अंतिम चरण अधिक से अधिक 20 वर्ष में पूर्ण कर लेते हैं। दूसरे शब्दों में इनकी पूर्मायु 20 वर्ष से अधिक नहीं होती । ख्याति प्राप्त अन्वेषक डॉ। मैक कालम साहब ने कुछ बालकों पर भोजन सम्बन्धी अनेक प्रयोग किे। कुछ बच्चों को भोजन पर रखा गया, कुछ को भोजन और दूध दोनों मिलता रहा और कुछ को भोजनस, दूध व शाक-सब्जी मिलती रही। जिनके भोजन में दूध शामिल नहीं था, उनकी बढ़वार रुक गई। जिनके भोजन में दूध शामिल था वे बच्चे बराबर तगड़ होते रहे और जिनके भोजन में दूध तता शाक-सब्जी भी शामिल थी, उनकी बढ़वार एक चौथाई अधिक हो गयी। फिर यह भोजन क्रम उलटा कर दिया गया, तो नतीजा बी उलट गया दूध सम्बन्धी इसी तरह के और अनेक प्रयोग अन्य कई विशेषज्ञों ने भी किए हैं और वे सभी इसी नतीजे पर बहुँचे हैं कि बढ़वार के लिे दूध अति आवश्यक है।

अनेक प्राकृतिक चिकित्सक ऐसे हैं, जिन्होंने यह साबित करने की कोशिश की है कि पशुओं से प्राप्त दूध शिशुओं के लिए उपकारी नहीं है। आज दिनांक तक विश्व में ऐसा कोई भी विशेषज्ञ नहीं, जिसने कोई ऐसी चोज सामने रखी हो, जो मातृत्व का अनूठा उपहार स्तनपान का स्थान ले सके। जब दो शाकाहारी और मांसाहारी व्यक्तियों के स्वभाव में अन्तर आ जाता है, जब दो तीखाहारी और मीठाहारी जुबानों में भिन्नता आ जाती है, तब फिर दो पशु-दूधाहारी और मानव-दूधाहारी मनुष्यों के स्वभाव व मानसिकता में पृथकता क्यों नहीं ? निर्विवाद रूप से पशुओं से प्राप्त दूध का सेवन करने वाला बालक अपेक्षाकृत पशु-प्रकृति के अधिक नजदीक रहेगा और मानव दूध का सेवन करने वाला बालक अपेक्षाकृत मानवता के अधिक समीप रहेगा। सामान्य बात है कि बक़री के बच्चे, बछड़े या पड़वे से हम कैसी मानसिकता की अपेक्षा करें और क्यों ?

इस प्रकार शारीरिक,मानसिक, सामाजिक, आर्थिक, प्राकृतिक आदि सभी दृष्टिकोणों से प्रत्येक शिशु का सबसे उत्तम भोजन माता का ही दूध है। माव शरीर अपने आस-पास के वातावरण से ज अपेक्षाएँ रखता है, उन सब में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अपेक्षा पौष्टिक आहार है। यदि मानव को उसके शिशुकाल में यथायोग्य पौष्टिक आहार प्रर्याप्त मात्रा में मिला हो, तो वह उसके स्वास्थ्य, सुख व शांति के लिए तो लाभदायक सिद्ध होता ही है, इसके अलावा उसके सामाजिक मूल्य की दृष्टि से भी वह विशेष फायदेमेंद सिद्ध होते है। शिशुकाल का ऐसा पोषक आहार स्तनपान अथवा माता का दूध ही है।

प्रायः यह देखा गय है कि आधुनिक व पाश्चात्य विचारधारा की महिलाएँ अपने सौंदर्य को अक्षुण्णा बनाये रखने की झूठी शान में अपनी संतान को इस नैसर्गिक देन स्तनपान से वंचित कर देती हैं। ऐसी माताएँ स्तनपान कराने से हमेसा घबराती रहती है । उनके मन-मस्तिष्क में ऐसी ही विचारधारा का अन्य महिलाओं ने यह मिथ्या विश्वा बिठला दिया है कि स्तनपान कराने से स्तनों की आकृति बिगड़ जाती है वे अत्यन्त लचीले हो जाते हैं, जुक जाते हैं, झुक जाते हैं अथवा अपेक्षाकृत उभार व सुडौल नहीं रह जाता, किंतु यह आशंका मात्र है। शिशु के स्तनपान की अवधि के उपरान्त वे फिर सामान्य अवस्था में आ जाते है हैं सामान्यः स्तन पेशयों व त्वचा के तनाव में कभी, मोटापे और ढलती उम्र के कारम ढुलकते हैं, स्तनपान के कारण नहीं,

कुछ माताएं स्तनपान कराने से इसलिए भी घबराती है कि कहीं वे दुर्बल न हो जावें या फिर उनका शरीर डन न जाय। वास्तविकता यह है कि स्तनपान करान से माँ का शरीर और भी सुन्दर आकर्षक हो जाता है। जो माताएँ स्तनपान नहीं कराती, उन्हें मोटापा अथवा बढ़ी हुई चरबी कम करने के लिए संतुलित आहार-विहार निश्चित करना पड़ता है्।

प्रकृति ने मनुष्य के शरीर के विभिन्न अंगों को किसी-न-किसी विशेष कार्य के लिए बनाया है। इसलिए उस अंग से वह कार्य लेते रहना चाहिए अनयथा प्रयोग में न आने से वह अंग कमजोर होकर बेकार होने लगता है।एक सामान्य बात यह है कि जब कोई व्यक्ति लम्बी अवधि तक बिमारी के कार चारपाई पर लेटा रहता है, ततब रोग से मुक्ति मिलने पर भी जब वह पहली बार चलने की कोशिश करता है, तब उसके पैर लड़खड़ाने लगते हैं। पैर लड़खड़ाने के वास्तविक कारम यह होते हैं किकाफी दिनों तक इनसे काम नहीं लिया गया था। फलतः इनकी पेशियाँ कमजोर पड़ गई। स्तनों के साथ भी यही प्राकृतिक नियम लागू होता है। बच्चों को दूध पीलाने हेतु प्रकृति ने स्तनों की रचना की है, लेकिन जो महिलाएं प्रकृति के इस आदेश का उल्लंघन करते हुए अपने बच्चों को अपना दुध नहीं पिलाती हैं, उनके स्तन अपेक्षित कार्य न करने के कारम सूख जाते हैं और स्तनों को सहारा देने वाली पेशियाँ कमजोर हो जाती हैं, जिससे स्तन लटक जाते हैं और प्राकृतिर रूप से विकसित स्तनों जासा सौन्दर्य इनमें नहीं रह जाता ।

दूसरी स्मरणीय बात यह है कि दूध पीते समय बच्चा चूचुक (निपल) को अपने मुँह में लेकर चूसता है, तो चूचुक थोड़ा लम्बा होकर उसके मुँह में मसूढ़ों का दबाव सिर्फ चूचुक मण्डल पर ही पड़ता है। स्तन के शेष भाग पर बच्चे के चूसने की क्रिया का कोई प्रभाव नहीं पड़ता । अतएव स्पष्ट है कि हमिलाओं के स्तनों का सौन्दर्य दूध पिलाने के कारण नष्ट नहीं होता, बल्कि अपनी लपरवाही और यौन सुख-सुविधा हेतु इसके गलत प्रयोग के कारण नष्ट होता है।

विशेषतः जिन महिलाओं के बच्चे बार-बार काल-कवलित हो जाते हैं या फिल बीमार पड़ जाता हैं अथवा जब बच्चे को कै-दस्त होते हैं, तब ऐसामान लिया जाता है कि माता का दूध बादी है या माँ का दूध बच्चे को रास नहीं आता अथवा माता का दूध बच्चे के अनुकूल नहीं है और इस अंधविश्वास को पूर्णतः सत्य मानकर स्तनपान कराना बन्द कर देते हैं, जबकि यह मानयता बिल्कुल गलत है। ऐसी करना जोखिम भरा कार्य है। हकीकत में स्तनपान बच्चे के लिए अच्छे से अच्छे पोषण प्रदान करने वाला सर्वोत्तम आहार है। यदि किसी कारण वश बच्चा अस्वस्थ होता भी है तो उसे किसी ख्यातिप्राप्त शिशु रोग विशेषज्ञ को दिखाना चाहिए और जब तक वह सलाह न दे, किसी भी हालात में स्तनपान बन्द नहीं करना चाहिए।

जिन कामकाजी महिलाओं की तीन महीने के प्रसूति अवकाश की सुविधा है, वे इस दौरान पूरी तरह से अपने बच्चे को अपा दूध पिला सकती है। अवकाश समाप्ति के पस्चात् कार्यालय जाने से पूर्व सुबह और कार्यालय से घर पहुँचने के पश्चात् शाम तथा रात को दूध पिलाने का क्रम बढ़ा सकती हैं। कामकाजी महिलाएँ अपने सुविधानुसार अपने हाथ से अपना दूध एक कप में निकालकर फ्रिज में रख सकती हैं । इस प्रकार निकाला हुआ दूध फ्रिज में लगभग 48 घंटे तक ताजा बना रहता है। इस कार्यालयीन समय में कोई अन्य महिला या सहयोगी घर में शिशु को चम्मच से पिला सकती है।

माता का दूध कोई विशेष उत्पादन अथवा कोई मानक उत्पादन नहीं है। उसकी रचना और गुण हर माता के भिन्न होते हैं। सथ ही, एक ही माता में भी अलग-अलग समय में भी पृथक-पृथक होते हैं। एक ही माता में भी अलग-अलग समय में भी पृथक-पृथक होते हैं। एक सर्वेक्षण से ज्ञात हुआ है कि नर्धन भारतीय माताएँ भी चार से छःमहिने तक अपने बच्चों को भरपूर स्तनपान करा सकती हैं, किन्तु जब बच्चे दूसरे वर्ष में होते हैं, तो माताओं के दूध से बच्चों के लिे आवश्यक पोषक तत्वों की दृष्टि से ही नहीं, बल्कि स्वभावव प्रकृति की दृष्टि से भी एक मता का दूध अन्य महिला से भिन्न होता है। किसी अन्य महिला का दूध भी इतना हितकर नहीं हो सकता, जितना बच्चे की अपनी माता का दूध।

यहाँ यह प्रासंगिक है कि एक क्षत्रिय युवराज रणभूमि से भागकर अपने राजमहल के प्रवेश द्वार पर पहुँचा। यह ज्ञात होते ही पिता ने आदेश दे दिया कि राजमहल का प्रेवश द्वार बन्द कर दिया जाए। युवराज तीन दिन तक राजमहल के प्रवेश द्वार पर पड़ा रहै। उसकी माता यह सोचकर निरन्तर अधिकाधिक परेशान होती रही कि आखिर उसका लाड़ला इतना कायर क्यों निकला, जो दुश्मन को पीछ दिखाकर भाग खड़ा हुआ। वह तो वीर-पुत्री, वीर-पत्नी एव वीर माता का पुत्र है। अन्ततः गूढ़ रहस्य उसकी समझ में आ गया और उसने अपने पति से अनुराध किया कि- “हे प्राणनाथ, बेटे को राजमहल के अन्दर प्रवेश करने दें और मुझे राजमहल के बाहर करने का आदेश दें, क्योकि पुत्र में कायरता के संस्कार पैदा करन के लिए मैं दोषी हूँ । हुआ यह था कि जब, राजकुमार की अवस्था लगभग छः माह की थी, तब यह एक दिन पालने में पड़ा-पड़ा रोन लगा। तत्समय मैं आपको भोजन करा रही थी, इसलिए भोजनालय को छोड़ना मैंने पतिव्रत धर्म के अनुकूल नहीं समझा। इस बीच बालक को चुप कराने के लिए धाय ने अपना स्तनपान करा दिया। यह धाय के उसी दूध का संस्कार है, जिसने युवराज को रणभूमि से भागने के लिए मजबूर किया है।”

इस प्रकार स्पष्ट है कि बालक के व्यक्तित्व निर्माण में स्तनपान का कितना व्यापक प्रभाव पड़ता है। माँ का दूध मानव जाति का जीवन स्त्रोत है। बच्चे का शारीरिक तथे मानसिक विकास मुख्यतः इसी बात पर निर्भर करता है कि छः महीने की उम्र तक उसे कैसी खुराक मिलती है। व्यक्तित्व निर्माम की मूल अवधि में शिश का सर्वाधइक निकट समपर्क माँ क साथ ही रहता है और स्तनपान करता है। इसीलिए माँ के व्यक्तित्व के अनुसार ही सन्तान के व्यक्तित्व का निर्माण होता है। माँ सिर्फ इतना ही चाहती है कि उसकी सन्तान सुखी प्रकार की सुख-सुविधा प्रदान करना चाहती है। इसी में वह परम संतोष का अनुभव करती है। उत्तरदायित्व सौंपते समय माताएं अपने बेटे को यही उपदेश देती है। “मेरे दूध को मत लजाना या मेरे दूध की लाज रखना।”

वस्तुतः स्तनपान माता के लिए लज्जा की बात नहीं, गर्व की बात है। माँ का दूध लगभग हर घड़ी दाँव पर लगा रहता है। माँ का दूध लगभग हर घड़ी दाँव पर लगा रहता है। “मैंने अपनी माँ का दूध पिता है,” “देखें, तुमने अपनी माँ का कितना दूध पिया है” यह कहने के बाद सदैव विजेता के मुख मण्डल पर विजय-गर्व की अपेक्षा मातृत्व रक्षा की आभा अधिक दमकती है। अधिल दमकती है। अखिल विश्व में जितने भी महापुरुष हुए हैं, उन सबने माता के ऋण को सगर्व स्वीकार किय है। मातृत्व की महिमा ही ऐसी है कि इस मृत्युलोक में जन्म लेने वाला हरेक व्यक्ति अपनी माता के प्रति सर्वाधिक आभार प्रकट करता है्। वह यही स्वीकारता है कि माता के प्रति उऋण होना असम्भव है।

स्वामी विवेकानन्द, भगवान बुद्ध, शंकराचार्य, महाराणा प्रताप। छत्रपति शिवाजी, महात्मा गाँधी सेंट आगस्टाइन, जॉन रस्किन इत्यादि अनेक महान व्यक्तयों ने अपने पिता के सम्बन्ध में भले ही कुछ न बोले हों ,मगर अपने चरित्र व जीवन वृत्त पर अपनी माता प्रभाव का इन्होंने खूब गुण गाया है। इन महात्माओं ने अपनी ऊपर माताओं के ऋण को मुक्त कण्ठ से स्वीकार किया है। श्रीमन्महर्षि वेदव्यास प्रणीत महाभारत, प्रथम खण्ड, आदिपर्व, सम्भव पर्व, पाण्डु-पृथा-संवाद विषय एक सौ उन्नीसवें अध्याय में वर्णन है कि मनुष्य इस पृथ्वी पर चार प्रकार के ऋणों (पितृ-ऋण, देव-ऋम, ऋषि-ऋण और मानव-ऋण हमें चुकाना चाहिए। मनुष्य सन्तानोत्पदन और श्राद्धकर्मों द्वारा पितृ-ऋम से तता दयापूर्ण बर्ताव द्वारा मानव-ऋम से मुक्त होता है, लेकिन मातृ-ऋण से उऋण होन सम्बन्धी कोई कर्म, कोई प्रक्रिया या कोई उल्लेख किसी भी धर्म, ग्रन्थ एवं काव्य में नहीं है।

नायक-नायिका के प्रेम, पति-पत्नी के कर्तव्य परायण, प्रेमी-प्रेमिका के समर्पण भाव सम्बन्धी वर्णन करने में (जिसके अन्तर्गत परस्पर त्याग के साथ किसी-न-किसी मात्रा में स्वार्थ जुड़ा हुआ ही है) तो अनेक कवि एवं साहित्यकार सिद्ध हस्त रहे हैं, उनेहं तत्पम्बन्धी राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुए और हो रहे हैं, किन्तु मातृ-हृदय से उद्भूत पवित्रतम व निःस्वार्थतम त्याग व स्नेह का चित्रण करने के सम्बन्ध में शायद ही किसी साहित्यकार या कवि को सिद्ध हस्त माना गया हो। संभवतः इसीलिए आज दिनांक तक इस ओर किसी ने कोई विशेष ध्यान नहीं दिया है।

प्रेमियों ने प्रेमिकाओं को और प्रेमिकाओं ने प्रेमयों को भले ही धोखा दिया हो, पत्नियों ने पतियों को और पतियों ने पत्नियों से भल ही निष्ठुरता का बर्ताव किया हो, पुत्रों ने पिता को और पिता ने पुत्रों को भली ही अपमानित किया हो, भाइयों ने बहनों के प्रति और बहनों ने भाइयों के प्रति भले ही वास्तल्यविहीनता का व्यवहार किया हो, लेकिन ऐसी अस्वाभाविक माताओं का उदाहरण बिल्कुल नहीं बराबर है, जिन्होंने अपनीकोख से उत्पन्न हुई संतति को धोषा दिया हो। निःसंदेह माताओं में भी उनके अपने दोष होते हैं, किन्तु अपने संतान के कष्टों के प्रति उपेक्षा एक ऐसी बात है, जो कोई माता करती ही नहीं, कर ही नहीं सकती, क्योंकि पुत्र कुपुत्र भले ही होंते हों, पर माता कुमाता कभी नहीं हो सकती। सहिष्णुता और त्याग माताओं के स्वाभाविक गुण होते हैं। माता के हृदय में स्नेह, दया और क्षमा अपार होती है और जननी के वात्सल्य में काम की दुर्गन्ध नहीं रहती, लोभ से उत्पन्न अस्थिरता नहीं रहती तथा वह स्वार्थ से कलुषित नहीं होती। इसलिए वे मनुष्य निश्चित रूप से अभागे हैं, जो बचपन में ही अपनी माता से हाथ धो बैठे हैं, उसके सेवाधिकार, स्नेहामृत व अमृत-तुल्य स्तनपान से वंचित हैं ।

कोई टिप्पणी नहीं: