शनिवार, 14 जून 2008

माता और महिला

माता की महिला
धन्य हैं वे जननियाँ, जिनकी गोद सुन्दर व सशक्त बालकों से समृद्ध है। धन्य हैं वे माताएँ, जिनके अंगों बालकों की धूलि से सलीन होते हैं। और धन्य हैं वे स्वर्गतुल्य घर-संसार, जो बाल-रत्नों से समृद्ध हैं। मातृत्व नारी के जीवन का केवल बूषम ही नहीं, जीवन की पूर्णता भी है। नारी के जीवन की कठोर तपस्या ही मातृत्व की साधना है। परित्यक्ता शकुनतला की तपस्या ने ही भारतवर्ष को एक सूत्र में पिरोने वाले भरत का निर्माण किया। पति द्वारा तिरस्कृत जीजावाई ने ही स्वराज् संस्थापक छत्रपति शिवाजी को बनाया और धर्मोपासिका पुतलीबाई ने ही विश्वबन्धु व राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को प्रतिष्ठित किया। मातृत्व एक ऐसा अमर गीत है, जिसमें समाज, देश, काल, परिस्थिति ,जीवन,धरम,भाषा आदि से सम्बन्ध रखने वाले अनन्त परिवर्तनों की भीड़ में एक स्वर का बी अन्तर नहीं आया है। मातृत्व एक ऐसी अग्रि रेका है, जिसे विश्व की समस्त अनास्था, अविश्वास और घृणा की भयानक आँधी भी नहीं छू सकती ।

शब्द-व्युत्पत्ति द्वारा मातृ शब्द के भाव को जानने की चेष्टा वैसी ही है, जैसी कि किसी फूल की नसों को उधेड़-उधेड़कर उसके सौंदर्य को परखने की चेष्टा। मातृत्व का शाब्दिक अर्थ होता है माँ होने का भाव, माँ-पन, अपनापन,ममता, ममत्व । मातृ का भाव निर्मातृ अर्थात निर्माण करने वाली जननी भी है।नारी चाहे कितनी भी अबला या सबला हो, माताके रूप मे ही उसका सर्वोत्कृष्ट स्वरूप देखने को मिलता है। माँ शब्द में ही ऐक अनिर्वचनीय पवित्रता है। हमारे उच्चतम व कोमनलतम विचार और प्रियतम व चिरसंचित स्वप्न उसी में केन्द्रित हैं। मातृ शब्द का व्यवहार हम उन वल्तुओं के लिए करते हैं, जिन्हें हम जीवन में सर्वाधिक प्यार करते हैं। जैसे हम “मातृभूमि” और “मातृभाषा” का प्रयोग इसलिए करते हैं क्योंकि अपने देश और अपनी भाषा को हम दूसरों से श्रेष्ठ समझते हैं।

बच्चे उतने ही ऊँचे उठ सकते हैं, जितनी ऊँची स्थिति में उनकी माताएँ होती हैं। वस्तुतः बच्चे ही राष्ट्र के भावी नेता और मानवता के उद्धारक होते हैं और उन्हें इस योग्य बनाने का उत्तरदायित्व माता पर ही है। सन्तान को भी ऐसा विश्वास होता है कि उनकी माता सब प्रकार की मानवीय भूलों और दूर्बलताओं से ऊपर उठी हुई है। जैसी भूमि वैसी ऊपज, जैसी माता वैसी सन्तान।

जैसे माताओँ को पुत्र के दोष नहीं दीखते, वैसे ही पुत्र भी माताओं के दोष देखने में अक्षम होते हैं। अपने बच्चों को प्यार करते समय सभी माताएँ सर्वगुण समपन्न हो जाती हैं, कोई माता जरा-जीर्म कुरूप व दरिद्र नहीं रहती । नीतिशात्र के सारे नियम-उप-नियम यदि किसी एक अत्यन्त प्रिय व्यक्ति में एकत्रित हो सकते हैं, तो पुत्र के लिए एक “माँ” शब्द मे वे सब के सब संग्रहित हो जाते हैं। यदि वसुन्धरा पर कोई ऐसी वस्तु है, जो प्राकृतिक प्रेम की अधिक से अधिक स्मृति दिला सकती है, तो वह “माँ” है।

इस मृत्युलोक में ऐसा कोई भी जीव-जन्तु अथवा प्राणी नही जो नारी सहयोग के बिना सिर्फ नर से ही उत्पन्न हुआ हो, होता हो या नर उसे उत्पन्न कर सकता हो। अर्थात् सारांश यह कि “नारी नर की खान” है। पौराणिक-मतानुसार परलोक में गया हुआ सूक्ष्म आत्मा खाद्यान्न आदि मे आकर 84 लाख योनियों मे से किसी भी योनि को प्राप्त करके नर के उदर में जाता है और फिर वही वीर्य बनकर नारी के गर्भ में निवास करता व पुत्र रूप मे प्रकट होता है। वैज्ञानिक मतानुसार नर वीर्य रूप में नारी के उदर में प्रवेश करता है और फिर वही पुत्र होकर बाहर आता है । उस समय उसके रंग-रूप, आकृति-प्रकृति, गुम-दोष धर्म-कर्म आदि पुत्र में अंकित रहते हैं। व्यवहार में पत्नी पति को पुत्र रूप में परिणत करके माता के रूप में स्तनपान करके पोषित होता और पुत्र नाम से प्रसिद्ध होता है। इस प्रकार व परस्पर सम्बन्ध की दृष्टि से “पति-पत्नी” और “माता-पुत्र” ही कहलाते हैं। भोजन किए हकुए जीवन-तत्व व पौष्टिक पदार्थों के सारभूत अंश से गर्भस्थ बालक की क्षुधा-तृप्ति तो होती ही है, साथ ही उसके अस्थि-मज्जा-मासादि भी बढ़ते हैं। यद्यपि नारी अपने खाद्य पदार्थों को मुँह से खाती है, लेकिन बालक माता की रसवहा तथा अपनी नाभिवहा नाड़ी के द्वारा खाता-पीता व पोषित होता है। यह वही नाड़ी है, जिसे नाल कहते हैं तथा जन्म उपरान्त जिसका किया जाता है।

माता में सृष्टि उत्पादन की क्षमता व प्रकृति का प्रतिरूप होने की सामर्थ्य के अवलावा दोहद, दौहृद या दौहृदिनी (दो हृदय वाली) होने की अलौकिक विशेषता भी है। शशीर विज्ञान के अनुसार गर्भावस्था के दिनों में बालक जब चार माह का होता है, तब उसके समरस्त अंग-उपांग बन जाते हैं और वह हृदयवान हो जाता है। तत्समय उसके हृदय की अभिलाषाएं माता के हृदय द्वारा प्रकट हुआ करती हैं। इसी कारम गर्भवती महिलाएं इन दिनों मे खान-पान, आचार-विचार, आहार-विहार, वत्राभूषण सम्बन्धी अपेक्षाकृत कुछ विशिष्ट प्रकार की अनेक अभिलाषाएँ प्रकट किआ करती हैं। वे सभी अभिलाषाएँ गर्भस्थ बालक बालक की होती हैं तथा उनकी पूर्ति करना नितांत आवश्यक है। किसी भी कारम से उनकी पूर्ति न की जाने की स्थिति में गर्भगत बालक के बुद्धिहीन, विकेकहीन व विकलांग होने की भी सम्भावना रहती है।

ख्यादिप्राप्त आम धारणा यह है कि यद्यपि सातवें महीने मे जन्म लेने वाला बालक जीवित रह जाता है, तथापि आठवें महीने मे जन्म लेने वाला जीवित नहीं रहता । इसका मुख्य कारम यह है कि गर्भ में बालक जब लगभग उठा महीने का हो जाता है, तबह उस समय उसके ओज की उत्पत्ति हो जाती है। ह ओज कभी बालक के हृदय में रहता है और कबी माता के हृदय में चला जाता है। ही ओज जिस समय बालक के हृदय से माता हृदय में गया हुआ होता है, यदि उसी समय बालक का जन्म हो जाय, तो वह जीवित नहीं रहता । जीवनप्रद ओज केन होने से तत्काल या कु्छ कालान्तर में काल-कवलित हो जाता है। माता के लिए यह विशेषतः अत्यन्त दुध-द हृदय विदारक, चिन्तनीय व अविस्मरमीय है।
सर्वविदित है कि मानव जाति की नारी लगभग प्रतिमास रजस्वला होती है तथा तत्समय लगभग तीन दिन तक रक्तस्त्राव हुआ करता है, जिसे मासिक धर्म कहते हैं। तदनन्तर शुद्ध स्नान करने के बाद आगामी मासिक धर्म के पूर्व यदि गर्भ ठहर जाता है, तब मासिक धर्म बन्द हो जाता है। साथ ही गर्भस्थ बालक के जन्म लेने से पहले ही लगभग नौ माह के अन्दर नारी के पयोधर दुग्धपूर्ण हो जाते हैं, जिनको नवजात शिशु पीता व पोषित होता है। यह प्रक्रिया शिशु के स्तनपान करने पर्यत्न चलती रहती है। जब शिशु स्तनपान करना बन्द कर देता है तब मासिक धर्म अथवा रक्तस्त्राव की पुनरावृत्ति प्रारम्भ हो जाती है। अब यहाँ एक तार्किक सवाल पैदा होता है। कि अतिकाल से रुके हुए रुधिर शोणित अथवा रक्त कहाँ जाता है और स्तन-पान बन्द होने के बाद स्तनों का दूध कहाँ जाता है इस सम्बन्ध में वैज्ञानिक अनुसन्धान द्वारा प्रमाणित हो चुका है कि गर्भ ठहरने के बाद मासिक धर्म का रुधिर अथवा रक्त ही दूध के रूप मे परिणत हो जाता है और शिशु द्वारा स्तन-पान का त्याग करने के पश्चात फिर वही दूद रुधिर का रूप धारण कर लेता है। यह अमृत-तुल्य स्तन-पान सम्बन्धी माताओं की शारीरिक रचना की एक अद्भुत विशेषता है।

माता जब सन्तान के सम्मुख आती है, तब तो वह अपने समस्त स्न्नेह को स्तनों के माध्यम से सन्तान को पिला देती है। वह उसे अपने तन से भी अधिक समझकर आत्मीय सुख पहुँचाती है। स्वयं प्यासी रहकर पुत्र को पानी पिलाती है। स्यंग भूखी रहकर बच्चे को भोजन खिलाती है। स्वयं गीले में सोकर सन्तान को सूखे मे सुलाती है। इस प्रकार हम जब भी माता को पाते हैं, विभिन्न रूपों में ही पाते हैं और जिस रूप में भी पाते हैं, उसी रूप में सेवा करते हुए, अपने आपको मिटाते हुए, अपनेपन को लुटाते हुए ही पाते हैं। उसके जीवन में उत्सर्ग है, उसकी मुसकान में सृजन है, उसके मोह में स्न्नेह है, उसके बन्धन में दान है और उसके दूध में अमृत है। वह श्री है। वह शक्ति है। वह चिति है। वह भक्ति है। वह श्रद्धा है। वह पूर्णा है। वह देवी है। वह मान्या है। वह पूज्या है। वह आराध्या है। वह सब कुछ है। वस्तुतः माता स्तवन करने योग्य समस्त यथार्थों व तथ्यों से परे है और माता की महिमा वाणी एवं शब्दों से परे है।

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