शनिवार, 14 जून 2008

वेद-पुराणों में माता का स्थान



चारों वेद, अठारह पुराण, अध्यात्म रामायण, महाभारत इत्यादि के प्रणेता महर्षि वेदव्यासजी कहते हैं-
“पितुरष्यधिका माता गर्भधारणपोषणात्।
अतो हि त्रिषु लोकेषु नास्ति मातृसमों गुरुः।।”
अर्थात् पूत्र के लिए माता का स्थान पिता से भी बढ़कर है, क्योंकि वह उसे गर्भ मे धारण कर चुकी है तथा माता के द्वारा ही उसका पालन-पोषम हुआ है। अतएव तीनों लोगों में माता के समान दूसरा कोई गुरू नहीं है।

ब्रह्ममवैवर्त्तपुराण-
“जनको जन्मदातृत्वाद पालनाच्च पिता स्मृतः।
गरीयान जन्मदा तुश्य योअन्नदाता पिता मुने।।
तयोः शतगुणे माता पूज्या मान्या च वन्दिता।
गर्भधारणपोषाभ्यां सा च चाभयां गरीयसी।”

अर्थात् जन्मदाता और पालनकर्ता होने के कारण सब पूज्यों मे पूज्यतम जनक और पिता कहलाता है। जन्मदाता से भी अन्नदाता पिता श्रेष्ठ है। इनसे सौ गुनी श्रेष्ठ और वन्दनीय माता है, क्योंकि वह गर्भधारण तथा पोषण करती है।


स्मृति का वचन है-
“उपाध्यायान्दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता।
सहस्त्रं तु पितृन्माता गौरवेणातिरिच्ते।।”
अर्थात् एक आचार्य गौरव में दस उपाध्याकों से बढ़कर है। एक पिता सौ आचार्यों से उत्तम है एवं एक माता सन्त्र पिताओं से श्रेष्ठ हैं।
“दशाचार्यानुपाध्याय उपाध्यायान् पिता दश।।
दश चैव पितृन् माता सर्वा वा पृथिवीमपि।
गौरवेणाभिभवति नास्ति मातृसमो गुरूः।।
माता गरीयसी यच्च तेनौतां मन्यते जनः”
अर्थात् गौरव में दस आचार्यों से बढ़कर उपाध्याय, दस उपाध्यायों से बढ़कर पिता और दस पिताओं से बढ़कर माता है। माता अपने गौरव से समूची पृथ्वी को भी तिरस्कृत कर देती है। अतएव माता के समान कोई गूरू नहीं है। माता का गौरव सबसे बढ़कर ,इसलिए लोग उसका विशेष आदक करते हैं।
महाभारत, द्वितीय खण्ड,वनपर्व के अन्तर्गत तीन सौ तेरवां अध्याया-

“माता गुरूतरा भूमेः खात् पितोच्चतरस्तथा।”
अर्थात् माता का गौरव पृथ्वी से भी भारी (अधिक) है।

मैथलीशरण गुप्तजी विरचित “यशोधरा” की निम्नांकित पंक्तियाँ तो नारी जीवन के समग्र रूप को एक साथ प्रगट कर देती हैं-

“अबला-जीवन, हाय। तुम्हारी यही कहानी।
आँचल में है दूध और आँखों में पानी।।”
श्री रहिबंश नारायणदास “आर्ताहरि”-
“तू कामधेनूका मधु-पय, शुचि सलिल जहनुजाताका।
या सुधा क्षीरनिधि की है, देवता प्यार माता का।।”
श्री नयनजी-
“मुझको माँ के सिवा न कोई, अन्य दीखता इस जग बीच।
माँ की शान्तगोद से मुझको, कभी न सकता कोई खींच।।”
लाला जगदलपुरी-
“नारी के आँचल में जीवन, उसके आँचल में सुधा वृष्टि
शुचि सुधा-वृष्टि में प्रेम-प्यार, और औ प्रेम-प्यार में पली सृष्टि।।”
प्रतापनारायणजी-
“शक्ति है यह मायालीला, जगत को यह ही जनती है ।
बहिन है, पत्नी है यह ही, सुता भी यह ही बनती है ।”
वेदवती शर्मा प्रभाकर-
“प्रभु-सत्ता की प्रबल शक्ति अति, मानवता का अतुल विकास ।
पूर्ण विश्व की जन्मदायिनी, विधि-संसृति का सफल प्रयास ।।”
पं। श्री दामोदरजी शास्त्री-
“जननी तेरी कोमलता, तू है कोमलता-धारा ।
कोमलतामय जीवन रख कोमल तव मृत्यु-किनारा ।।”
“गर्भधारणपोषाद्धि ततो माता गरीयसी ।”
अर्थात, सन्तान को गर्भ में धारण करने एवं विविध कष्ट सहर भी उसका पालन-पोषण करने के कारण माता की पदवी सबसे ऊँची है ।
“मातृतोअन्यो न देवोअस्ति तस्मात्पूज्या सदा सुतैः ।”
अर्थात् पुत्रों के लिए माता परम पूजनीय है । माता के होते हुए उनको किसी दूसरे देवता की पूजा करना आवश्यक नहीं है ।
“आयः पुमान् यशः स्वर्ग कीर्ति पुण्यं वलं श्रियम् ।
पशुं सुखं धनं धान्यं प्राप्रुयान्मातृवन्दनात् ।।”
अर्थात् माता की सेवा करने वाला सत्पुरुष दीर्घायु, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुण्य, बल लक्ष्मी, पश, सुख, धन्य, धान्य- सब कुछ प्राप्त कर सकता है ।
“धिगस्तु जन्म तेषां वै कृत्घनानां च पापिनाम् ।
ये सर्वसौख्यदां देवीं स्वोपास्यां न भजन्ति ।।”
अर्थात धिक्कार है उन कृतध्न, अपकारी, पापी, दुर्जनों को जो सर्वसुख प्रदायिनी माता की सेवा- शुश्रूषा नहीं करते ।
ब्रह्मवैवर्त्तपुराण-
“स्तनदात्री गर्भधात्री भक्ष्यदात्री गुरुप्रिया ।
अभीष्टदेवपत्नी च पितुः पत्नी च कन्या ।।
सगर्भजा या भगिनी पुत्रपत्नी प्रियाप्रसूः।
मातुर्माता पितुर्माता सोगरस्य प्रिया तथा ।।
मातुः पितुश्य भगिनी मातुलानी तथैव च ।
जनानां वेदविहिता मातरः षोडशस्मृता ।।”
अर्थात् स्तन पिलाने वाली, गर्भ धारण करने वाली, भोजन देने वाली, गुरुपत्नि, इष्टदेवता की पत्नि, पिता की पत्नि (विमाता अथवा सौतेली माँ), पितृकन्या (सौतेली बहन), पुत्रवधू, सासू, नानी, दादी, भाई की पत्नि, मौसी, बुआ और मामी- वेद में मनुष्यों के लिए सोलह प्रकार की माताएँ बतलायी गयी हैं । अतएव उपरोक्त वर्णित तथ्यों से स्पष्ट है कि सभी माताओं में अमृत-तुल्य स्तन-पान कराने वाली माता का स्थान सर्वश्रेष्ट है, सर्वोच्च है, सर्वोपरि है

कोई टिप्पणी नहीं: