मंगलवार, 10 जून 2008

पौष्टिक पदार्थ क्या है


आहार में हमें पौष्टिक पदार्थों का ही सेवन करना चाहिए, ताकि शरीर को पाषक तत्व मिल सकें तथा शरीर अपेक्षाकृत अधिक काल तक बलवान और पुष्ट बना रहे। जो पदार्थ शरीर का पोषम करके स्वास्थ्य की रक्षा करते हैं तथा शरीर में को व्याधि पैदा नहीं होने देते, वरन् रोग प्रतिरोधक शक्ति पैदा करते हैं, वे ही भक्ष्य पदार्थ होते हैं और जो पदार्थ पोषण रहित, दूषित तथा शरीर का नाश करने वाले होते हैं, वे ही न खाने योग्य अर्थात् अभक्ष्य पदार्थ होते हैं।

पोषण तत्व
शरीर को जिन पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है, उनमें अग्रांकित तत्वों के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं-

(1) जीवन-तत्व अथवा खाद्योज विटामीन
(2) प्रत्यामिन (प्रोटीन)
(3) श्वेतसार (कार्बोज या कार्वोहाइट्रेट्स)
(4) वसा (फेट)
(5) खनिज लवण (मिनरल्स)
(1) जीवन-तत्व (विटामिन)-
जीवन तत्व या जीवनीय द्रव्य अथवा खाद्योज को अंग्रेजी में विटामिन कहते हैं, जो विभिन्न खाद्य पदार्थों में अलग-अलग वर्ग और मात्रा के अनुसार पाये जाते हैं। इन पदार्थों के सेवन से शरीर को वे जीवन-तत्व प्राप्त होते हैं,जिससे शरीर को शक्ति,ऊर्जा तथा पोषक तत्वों की प्राप्ति होती है। इसलिए हमें जीवन-तत्वों से युक्त पदार्थों का संतुलित आहार ग्रहम कर के अपने शरीर तथा स्वास्थ्य की सुरक्षा करना चाहिए । वैसे तो तत्व अनेक प्रकार के होते हैं, लेकिन निम्नांकित जीवन-तत्व कुछ प्रमुख हैं-

(अ) जीवन-तत्व- “अ” (विटामिन –“ए”)
(आ) जीवन-तत्व- “ब” (विटामिन- “बी” )
(इ) जीवन-तत्व- “स” (विटामिन – “सी”)
(ई) जीवन-तत्व- “द” (विटामिन- “डी”)
(उ) जीवन-तत्व – “ई” (विटामिन- “ई”)
सर्वप्रथम विटामिन नामक इस पदार्थ की खोज फक नामक वैज्ञानिक ने सन् 1913 में की थी । तदुपरान्त इस दिशा में जैसे-जैसे ज्ञान बढ़ता गया, इनकी संख्या भी बढ़ती गई। फलतः इनके विटामिन “ए” ,“बी”, “सी”, “डी”, “ई”, इत्यादि अनेक नाम दे दिए गए। ये नाम केवल सुविधा की दृष्टि से ही दिए गए हैं, गुण-दोष की दृष्टि से नहीं । जहाँ तक रासायनिक उपादानों का सम्बन्ध है, ये सब एक दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं। प्रभाव में भी ये परस्पर बिल्कुल भिन्न हैं।

स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए विटामिन अति उपयोगी तत्व हैं। इनकी कमी से शरीर में विभिन्न प्रकार के रोग हो जाते हैं। भिन्न-भिन्न विटामिनों का शरीर के पृथक-पृथक अंगो पर अलग-अलग प्रभाव भी पड़ता है। विटामिन की गोलियों अथवा कैप्सूलों का कभी-कभी विपरीत प्रभाव भी पड़ता है और अनेक नये-नये में ही लेना चाहिए, दवा के रूप में नहीं। क्योंकि वस्तुतः कोई दवा रोग का निवारण नहीं करती। शारीरिक शक्ति से ही रोग नष्ट होता है। यदि अन्दर के अंग सुचारू रूप से अपना कार्य करना बंद कर दें, तो दवा से कोई लाभ नहीं हो सकता। रोगों के कीटाणुओं को मारने के लिए दवाई लेनी पड़ती है, लेकिन मरे हुए कीटाणुओं को तथा दवा के विष को शरीर से बाहर निकालने के लिए अंदर की शक्ति चाहिए। यदि आन्तरिक अंगों में शक्ति होगी, तो शरीर अपने को स्वस्थ कर लेगा, अन्यथा एक रोग जाएगा और दूसरा रोग आएगा। यद्यपि विटामिन न तो ऊर्जा ही प्रदान करते हैं और तंतुओं की बृद्धि अथवा क्षति-पूर्ति ही, लेकिन फिर भी स्वस्थ जीवन के लिए ये नितान्त आवश्यक हैं।
कार्य-
(1) शरीर वृद्धि,त्वचा व नेत्रों को स्वस्थ रखना।
(2) शारीरिक वृद्धि, कार्वोज काउपयोग, हृदय, मांसपेशियों और स्त्रयु संस्थान का उचित क्रियाशीलन।
(3) कोषाणुओं की मरम्मत,रक्त को शुद्ध करना,रक्त-वाहिनियों व समूहों को स्वस्थ रखना।
(4) कैल्शियम वृद्धि, फास्फोरस का उपयोग, दाँत और अस्तियों को स्वस्थ रखना।
(5) जीवों में प्रजजन शक्ति बनाए रखना, सेक्स हार्मोन की उप्पत्ति, सक्त कणों के निर्माण में सहायता करना।
(6) रक्त को सामान्य रू से जमाना, ग्लुकोज को ग्लाईकोजन में परिवर्तित करने में सहायता करना।
(2) प्रत्यामिन (प्रोटीन)-
प्रोटीन कोई साधारण रासायनिक पदार्थ नहीं है। यह बहुत से पदार्थों का एक मिश्रण है। वे सब पदार्थ मिलकर एक नाम से “एमिनों एसिट” कहे जाते हैं। इस प्रकार प्रोटीन सजीवीय मिश्रण रखने वाला अतिमिश्रित नत्रजन है। प्रोटीन में कार्बन, हाइड्रोजन तथा प्राणवाय के अलावा स्तायी रूप से जत्रजन, सामान्य रूप से गंधक तता कभी-कभी लोहा, ताँबा, जस्ता व मैंगनीज भी पाया जाता है।
बिभाजन-(1) सरल प्रोटीन-
(क) अल्ब्युमीन
(ख) ग्लोबुनीन
(ग) ग्लुटीन
(2) कन्जुगेटेड प्रोटीन-
(क) न्युक्लो प्रोटीन
(ख) ग्लायको प्रोटीन
(ग) फास्फो प्रोटीन
(घ) क्रोमो प्रोटीन
(ङ) कीपो प्रोटीन
(3) उद्भूत प्रोटीन-
(क) प्राथमिक प्रोटीन
(ख) उपर्रधान प्रोटीन
कार्य-
(1) प्रोटीन विभिन्न तन्तुओं के निर्माण, टूटे-फूटे तन्तुओ की मरम्मत एवं वृद्धि
करने में सहायता प्रदान करता है।
(2) शारीरिक वृद्धि के लिए नाइट्रोजन की कमी प्रोटीन के उचित उपभोग से ही
पूरी हो सकती है।
(3) प्रोटीन मानसिक शक्ति को बढ़ाता है।
(4) प्रोटीन रोगों से लड़ने की शक्ति प्रदान करता है ।
(5) प्रोटीन शरीर की क्रियाओं का संचालन करता है।
(6) सभी मांस-पेशियों का निर्माण प्रोटीन से ही होता है।
(7) रक्त का निर्माण भी प्रोटीन से होता है।
(8) प्रोटीन कार्बन-डाईऑक्साइड को बाहर निकालने के लिए फेफड़ों में लाटा है और ऑक्सीजन को देह के प्रत्येक अंग में बहुँचाता है।
(3)श्वेतसार (कार्बोज या कार्बोहाइट्रट्स)-
श्वेतसार कोई अकेली चीज नहीं है। इसमें की चीजें शामिल हैं। श्रेणी की सभी चीजों में जो खाद्य पदार्थ के रूप में प्रयुक्त होते हैं, चीनी 9सुगर), माड़ी (स्टार्च) जल की तरह एक अंश प्राण-वायु और दो अंश हाइड्रोजन के अतिरिक्त कुछ कार्ब का अंश भी होता है। मुख्यतः श्वेतसार को निम्नांकित चार भागों में विभक्त किया जा सकता है-
(1) मोनो-सैक्राइड्स-
(क) ग्लुकोज या डेक्स्ट्रोज (अंगूर की चीनी)
(ख) फ्रक्टोज (फल-शर्करा)
(ग) गैलेक्डोज (दूध –शर्करा)
(2) डाई-सैक्राइड्स-
(क) सुक्रिया (ईख-शर्करा)
(ख) माल्टोज (साल्ट-शर्करा)
(ग) लैक्टोज (दूध की चीनी)
(3) पोली-सैक्रइड्स-
(क) स्टार्च (अनाज का सत्व या माड़ी)
(ख) ग्लाइकोनेन (मांस का सत्व या पशु माड़ी)
(ग) सेलुलोज (अपचन व अघुलनशील श्वेतसार)
क्रिया-
(1) श्वेतसार (कार्बोज) शरीर को ताप व ऊर्जा प्रदान करता है। यह अतिरिक्त
शक्ति की आवश्यकता पड़ने पर काम में आता है।
(2) श्वेतसार मांसपिशियों का निर्माण करते हैं।
(3) कार्बोज शारीरिक ताप को स्थिर करता है।
(4) कर्बोज वसायुक्त पदार्थों की कमी होने पर उसे पूरा करते हैं।
(5) कार्बोहाइड्रेट्स शरीर में बसा के उपयोग में मदद देते हैं।
(6) कार्बोहाइड्रट्स प्रोटीन को कार्य करने में सहातता प्रदान करते हैं।
(7) कार्बोज बड़ी आँत को उत्तेजित कर के कब्ज को रोकते हैं।
(8) कार्बोज आँत की गति को प्रोत्साहन प्रदान करता है, जिससे दस्त के खुलासा होने में मदद मिलती है।
(9) कार्बोज भोजन को स्वाद प्रदान करते हैं।

(4) वसा (फेट)-
वसा के अन्तर्गत शुद्ध चर्बी ही नहीं, बल्कि वे सभी पदार्थ आते हैं, जो रासायनिक तौर पर उससे सम्बन्ध रखते हैं। इसमें प्रजाति कार्बन, हाइड्रोजन और प्राणवायु का रासायनिक संयोग है। शुद्ध वसा एक जैविक प्रलवण है, जिसमें एक भाग ग्लीसेरॉल और तीन भाग वसा-अम्ल का संयोग होता है। इसके अग्रांकित वर्ग होते हैं-
(1) वसा व तेल- ग्लीसेरॉल और वसा-अम्ल का संयोग।
(2) मोम वेक्स –हायर अल्कोहल और वसा-अम्ल का संयोग।
(3) सेरिब्रोसायड्स – चीनी, नत्रजन और वसा-अम्ल का संयोग।
(4) फॉस्फो-लिपिड्स – यह पदार्थ विशेषकर पशुओं और पेड़-पौधो में पाया जाता है।
कार्य-
(1) वसा शक्ति प्रदायक है।
(2) वसा मस्तिष्क और स्त्रयु-तन्तुओं के लिएअत्यन्त आवश्यक है।
(3) वसा शरीर के भीतरी अवयवों के चारों ओर उपस्थित रहता है, जिससे हमारा शरीर बाहरी आघातों से सुरक्षित रहता है।
(4) वसा हमारी त्वचा और केशों को चिकना बनाए रखता है।
(5) यह प्रोटीन तता विटामिन तत्वों को अपव्यय से बताता है।
(6) यह घुलनशील जीवन-तत्वों को शरीर के विभिन्न अवयवों में पहुंचाने का कार्य करता है।
(7) यह शरीर में चिकनाहट उत्पन्न करने वाला द्रव्य है।
(8) त्वचा के नीचे पाया जाने वाला वसा शरीर की गर्मी को बाहर नहीं निकलने देता इससे शरीर का तापमान स्थिर रहता है।
(9) यह मांस-पेशियों को शक्ति प्रदान करती है तथा तन्तुओं की क्षय हुई चर्बी को पूर्ण करता है।
(10) यह कब्ज को रोकता और दस्त को खुलासा करता है।
(11) आमाशय में हाइड्रोक्लोरिक एसिड के क्षरण को नियंत्रित करता है।
(5) खनिज लवण (मिनरन्स)
जो खाद्य पदार्थों को जलाने के पश्चात् भस्म के रूप में बच जाते हैं, उस खनिज कहते हैं। खनिज भोजन तथा शरीर में सजीवीय तता निर्जीवीय मिश्रणों में पाये जाते हैं। पेड़-पौधे, शाकाणु प्राणी तथा अन्य एककोशीय जीवों के अस्तित्व के लिए कुछ खनिज का उचित समाहार आवश्यक है। मानव-शरीर के सर्वप्रधान कार्यकारी खनिज-तत्व निम्नलिखित हैं-
(1) कैश्सियम (2) फास्फोरस
(3) पोटेशियम (4) गंधक
(5) सोडियम (6) क्लोरीन
(7) मैग्निशियम (8) लोहा
(9) मैंगनीज (10) ताँबा
(11) आयोडीन (12) जस्ता
(13) फ्लोरीन (14) कोबाल्ट
शरीर को खनिज लवणों की अत्यधिक आवश्यकता होती है। स्वस्थ शरीर का निर्माण खनिज लवणों पर ही निर्भर करता है। शरीर-यंत्र के परिचालन में अनिज लवमों का बहुत बड़ा हाथ है। खनिज लवणों का इतना अधिक महत्व है कि यदि भोजन इन लवणों से रहित हो, तो कोई भी प्राणी 20-25 दिन से अधिक जीवित नहीं रह सकता ।
(1) अस्ति-निर्माण तथा शरीर-वद्धि।
(2) अम्ल का समतोलन।
(3) रक्त-निर्णाण।
(4) आमाशयिक रस-निर्माण।
(5) दाँतों के एनैमल की स्वस्थता में सहायक।
(6) हार्मोस के उत्पादन में सहायक।
वैसे तो मानव-शरीर के लिए आवश्यक विभिन्न पोषक तत्व विटामिन,प्रोटीन, श्वेतसार, वसा, अनिज अत्यादि पृथक-पृथक घी, मक्खन, दही, छेना,मटा पनीर,मांस, मछली, अण्डा, अनाज, दलहन, तिलहन, फल, कन्द-मूल, शाक-सब्जी, सूर्यकिरण,मेवा,खमीर, गुड़, मधु आदि में मिलता है्, लेकिन दूध में सभी पोषक तत्व एक साथ मिलते हैं। दूध में लगभग सभी प्रकार के रोगनिवारण शक्ति बढ़ाने वाले तत्व भी होते हैं। अब यह बात वैज्ञानिक आधार पर भी प्रमाणित हो चुकी है कि सम्पूर्ण विश्व का कोई भी पदार्थ इसकी बराबरी नहीं कर सकता। दूध के पोषक तत्व प्रत्येक प्रकार के पोषक तत्वों में सर्वोत्तम है।
(7) विरोधक आहार-
हम जो आहार ग्रहण करते हैं, वे यदि हमारे शरीर की धातुओं के विपरीत गुण वालेहोंगे, तो व शरीर की धातुओं के विरुद्ध हो जाएँगे। दो विरुद्ध गुणों वाले पदार्थों को एक साथ ग्रहण करना शरीर व स्वस्थ्य के लिए हानिकारक होने से आयुर्वेद ने वर्जित किया है। आयुर्वेद ने विरोधक आहार के निम्नांकित 18 घटक बताये हैं-

(1) देश विरुद्ध (2) काल विरुद्ध
(3) अग्नि विरुद्ध (4) मात्रा विरुद्ध
(5) सात्मय विरुद्ध (6) दोष विरुद्ध
(7) संस्कार विरुद्ध (8) वीर्य विरुद्ध
(9) कोष्ठ विरुद्ध (10) अवस्था विरुद्ध
(11) क्रम विरुद्ध (12) परिहार विरुद्ध
(13) उपचार विरुद्ध (14) पाक विरुद्ध
(15) संयग विरुद्ध (16) हृदय विरुद्ध
(17) सम्पद विरुद्ध (18) विधि विरुद्ध
इन 18 स्थितियों में जो पदार्थ होते हैं, उनका सेवन करना हितकारी नहीं, हानिकारक होता है। इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-
(1) देश विरुद्ध-
गर्म और सूखे देश (प्रदेश) में रूखे, तीखे और उष्ण प्रकृति के पदार्थों का तथा ठण्डे, स्त्रिग्ध एवं नमी वाले देश (प्रदेश) में शीतल व चिकने पदार्थों का सेवन करना देश-विरुद्ध आहार है।
(2) काल विरुद्ध
शीतकाल में ठम्डी प्रकृति के रूखे द्रव्यों अथवा औषधि का सेवन करना और ग्रीष्म काल में कटु,तिक्त रस वाले पित्तवर्द्धक व उष्ण प्रकृति के पदार्थों का सेवन करना काल-विरुद्ध आहार है।
(3) अग्नि विरुद्ध-
अपनी पाचन शक्ति से अधिक याकम मात्रा के किया गया भोजन अग्नि विरुद्ध आहार है। अग्नि की शक्ति से अधिक मात्रा में आहार लेन से अपच हो जाता है और कम मात्रा में लेने से शरीर क्षीण होता है ।
(4) मात्रा विरुद्ध-
शहद और घी समान मात्रा में मिलना मात्रा विरुद्ध होता है। शहद और घी समान मात्रा में मिलाने से दुषित हो जाता है। इसलिए इनको समान मात्रा में न लेकर एक भाग घी और तीन भाग शहद लेकर मिलाना चाहिए।
(5) सात्म्य विरुद्ध-
जिस व्यक्ति की प्रकृति (तासीर) जैसी हो, उस प्रकृति के विरुद्ध गुण वाले पदार्थों का सेवन सात्म्य विरुद्ध होता है । जैसे कटु रस और उण्ण वीर्य वाला आहार अनुकूल रहता हो, उस व्यक्ति के लिए मधुर रस और शीत वीर्य वाला आहार सात्म्य विरुद्ध होगा।
(6) दोष विरुद्ध-
बात, पित्त और कफ इन तीनों दोषों के समान गुण वाले व अपने अभ्यास के विरुद्ध आहार, औषधि एवं कर्म का सेवन करना वात, पित्त व कफ दोष विरुद्ध कहा जाता है।
(7) संस्कार विरुद्ध-
जो पदार्थ जिस विधि से बनाने पर हानिकारक हो जाए, उस विधि को संस्कार कहते हैं। जैसे शहद को गरम करके गरम जल अथवा गरम दूध के साथ उबालना या पकाना संस्कार विरुद्ध होता है। शहद को किसी भी पदार्थ के साथ ाग पर पकाना संस्कार विरुद्ध होने से हानिकारक होता है।
(8) वीर्य विरुद्ध-
शीतल व शीत वीर्य द्रव्यों को उष्ण वीर्य वाले द्रव्यों के सात सेवन करना वीर्य विरुद्ध होता है।
(9) कोष्ठ विरुद्ध-
जिसका कोष्ठ (कोठा) कठोर हो, उसके लिए कम मात्रा में मन्द वीर्य और मल विसर्जित करने का गुण न रखने वाला आहार कोष्ठ विरुद्ध है। इसी प्रकार जिसका कोठा नरम हो, उसके लिए अधिक मात्रा में भारी और दस्तावर आहार कोष्ठ विरुद्ध होता है।
(10) अवस्था विरुद्ध-
अधिक परिश्रम य्यायाम करने वाले व्यक्ति का वातवर्द्धक आहार लेना याजो आलसी, अधिक सोने वाले, आराम से बैठे-बैठे काम करने वाले हों, उनका कफवर्द्धक आहार लना अवस्था विरुद्ध होता है।
(11) क्रम विरुद्ध-
जो व्यक्ति मल-मूत्र त्याग किकए बिना और भूख का अनुभव किए बिना आहार ग्रहण करता है उसे क्रम विरुद्ध कहते हैं।
(12) परिहार विरुद्ध-
जो व्यक्ति उष्म प्रकृत्ति के पदार्थ खाकर ऊपर से पुनः उष्ण प्रकृति का ही आहार ग्रहण करता है, उस आहार को परिहार विरुद्ध कहा जाता है।
(13) उपचार विरुद्ध-
जो व्यक्ति घी, तेल आदि चिकने पदार्थों का सेवन कर ऊपर से ठण्डा पानी पीता है, यह उपचार विरुद्ध कहा जाता है।
(14) पाक विरुद्ध-
अधपका, अधकच्चा, ज्यादा पकाया हुआ अथवा ज्यादा पकने से जला हुआ आहार सेवन करना पाक विरुद्ध होता है।
(15) संयोग विरुद्ध-
अम्ल रस वाले खट्टे पदार्थ को दूध के साथ खाना तथा घी और शहद समान मात्रा में मिलाकर सेवन करना संयोग विरुद्ध है। शहद की प्रकृति शीतल है, इसीलिए उष्ण द्रव्यों के साथ इसका संयोग हानिकारक होता है।
(16) हृदय विरुद्ध-
जो आहारमन के अनुकूल न हो, उसका सेवन करना हृदय विरुद्ध होता है। ऐसा आहार ग्रहण करना इसलिए उचित नहीं , क्योंकि आहार के पचने में मन का अत्यधइक सम्बन्ध रहता है। यदि शरीर और पाचन शक्ति ठीक हो, लेकिन फिर भी आहार मन के अनुकूल न हो। तो उसका पाचन ठीक से नहीं होता।
(17) सम्पद् विरुद्ध-
जिस आहार द्रव्य अथाव औषधि द्रव्य में उचित रूप से रस उत्पन्न न हुए हों या जो ज्यादा पक गए हों, याने अधकच्चे या ज्यादा पककर सड़ चुके पदार्थ का सेवन करना सम्पद् विरूद्ध होता है।
(18) विधि विरुद्ध-
आहार ग्रहण करन का जो सही विधि-विधान है, सही समय व सही ढंग है, उस विधि से भोजन न करके अनियमित ढंग से असंतुलित आहार ग्रहण करना विधि व विरुद्ध आहार होता है।
इस प्रकार उपर्युक्त 18 प्रकार के विरुदध आहार होते हैं, जिनसे हमें बचना चाहिए। इस प्रकार का विरुद्ध आहार ग्रहण करने से ही नपुंसकता, नेत्र ज्योति की कमजोरी, शारीरिक कमोजरी, अपच, पेट फूलना, मद, मोह, मूर्च्छा, आम दोष, श्वेत,कुष्ठ, ग्रहणी रोग, शोथ, अम्ल, पित्त, ज्वर, पाण्डु, भगन्दर, कब्ज, पीनस इत्यादि अनेकानेक प्रकार के रोग अनुकूल परिस्थिति पाते ही उत्पन्न हो जाते हैं।
अनुकूल आहार से शरीर को शक्ति मिलती है और विरुद्ध आहार से व्याधियाँ मिलती हैं। आमतौर पर लोगों को स्वास्थ्य रक्षक और स्वास्थ्य नाशक आहार के सम्बन्ध में विशेष जानकारी नहीं होती, इसीलिे वे अनजाने में गलत आहार ग्रहम करके बीमार होते रहते हैं।
चिन्ता करते हुए भोजन करना, भोजन करते ही शौच जाना अथवा शोच से आते ही भोजन करना, ठीक से चबाये बिना ही निगल जाना, भोजन के अन्त में जल पीना, भोजन करते ही सोना, भूख लगने पर भोजन न करना, भूख मर जाने के बाद भोजन करना, भोजन करके स्नान करना, आठ घम्टे से ज्यादा भूखे रहना और तीन घण्डे के अन्दर दोबारा भोजन करना इत्यादि ये सभी कृत्य अपने स्वास्थ्य से दुश्मनी करने के बराबर हैं। इसी प्रकार बच्चों को अन्य स्तनधारी पशुओं का दूध पिनाना भी अपने बच्चे के साथ दुश्मनी करना है। माता के स्तन में जो दूध बनता है, वह बच्चे की आवश्यकतानुसार उसकी पूर्ति के लिए प्रकृति बनाती है। इस कारण पशु दूध मानव शिशु के लिए अप्राकृतिक दूध है और उपर्युक्त वर्णित 18 प्रकार के विरुद्ध आहार हैं। इसलिए भूलकर भी मानव शिशु को पशु दूध नहीं पिलाना चाहिए।

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