मंगलवार, 10 जून 2008

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विभिन्न वेद पुराणों के अनुसार आत्मा तो सदैव अमर है। उसका न कभी जन्म होता है और न कभी मृत्यु । मृत्यु ही जीव के लिए सबसे बड़ा भय है। यह मृत्यु-भय, कीट-पतंग आदि निकृष्ट योनियों से लेकर उत्तम से उत्तम ऋषि-देव आदि योनियों तक सभी को समान रूप से घेरे हुए है। यद्यपि शास्त्रों में देव योनि को “अमर” बतलाया गया है और देवताओं का एक नाम “अमर” भी आता है, तथापि देवता अमर नहीं हैं। वस्तुतः वे मृत्युलोक के निवासियों की अपेक्षा अधिक दीर्घजीवी होते है। उनका एक दिन-रात हमारे एक वर्ष के बराबर होता है- छः महीने की रात्रि या यों कहें कि उत्तरायण तक दिन और दक्षिणायन तक रात । उनके कालमान से उनकी आयु सौ वर्ष की होती है और हमारे कालमान से 36000 वर्ष से कुछ अधिक। अतएव हमारी दृष्टि में वे एक प्रकार से अमर ही हैं, क्योंकि उनकी एक पीढ़ी में हमारी हजारों पीढ़ियाँ समाप्त हो जाती हैं। जैसे मच्छर व पतंगे की दृष्टि में एक प्रकार से हम मानव भी अमर ही हैं, क्योंकि हमारी एक पीड़ी में मच्छरों व पतंगों सैकड़ों-हजारों पीड़ियाँ बीत जाती हैं। इसी दृष्टिकोण को सामने रखकर हमारे शास्त्रों में देवताओं के लिए “अमर” अथवा “अमर्त्य” तथा अन्य प्राणियों के लिए “मरणशील” अथवा “मर्त्य” शब्दों का और देवलोक के लिए “स्वर्गलोक” तथा “भूलोक” के लिए “मृत्युलोक” आदि शब्दों को स्वीकार किया गया है। वास्तव में देवता भी हम मानवों की ही भाँति मरणधर्मी हैं। स्वर्गलोक से गिरना अथवा मृत्युलोक में जन्म लेना ही उनकी मृत्यु है। श्रीमद्भगवद् गीता, अध्याय-नौ, श्लोक क्रमांक-इक्कीस में स्पष्ट उल्लेख है कि-

“ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं, क्षीणे पुण्येमत्यलोकं विशन्त
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना, गतागतंकामकामा लभन्ते।”
अर्थात् वे स्वर्गलोक को प्राप्त हुए जीव उस विशाल स्वर्गलोक को भोगकर पुण्य-क्षीण होने पर मृत्युलोक को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार स्वर्ग के साधन-रूप तीनों वेदों में कहे हुए सकाम कर्म का आश्रय लेने वाले और भोगों की कामना वाले मनुष्य बारम्बार आवागमन (आने-जाने) को प्राप्त होते हैं। अर्थात् पुण्य के प्रभाव से स्वर्गलोक में जाते हैं और पुण्य क्षीण होने पर मृत्यु लोक में आते हैं। यही बात अमृत तुल्य दिव्य पेय के सम्बन्ध में भी समझनी चाहिए। अमृत के विषय में शास्त्रों में भी ऐसे वचन मिलते हैं कि अमृत को पी लेने पर जीव अमर हो जाता है।

छठे मनु चक्षु के पुत्र चाक्षुष थे। उनके पुरु, पुरुष, सुद्यम्न आदि कई पुत्र थे। इन्द्र का नाम मन्त्रद्रुम था और अन्य प्रधान देवगण का नाम आप्य आदि था। उस मन्वन्तर में हविष्यमान और वीरक आदि सप्तर्षि थे। जगत्पति भगवान ने उस समय वैराज की पत्नी सम्भूति के गर्भ से अजित नाम का अंशावतार ग्रहण किया था। वे ही समुद्र-मन्थन के समय कच्छप-रूप धारण करके विशाल मथानी रूपी मन्दराचल पर्वत के आधार बने थे और उन्होंने ही मोहनी-रूप धारण करके देपताओं को अमृत पिलाया था।

यहाँ यह प्रासंगिक है कि एक बार श्री दुर्वासा जी बैकुण्ठ लोक से आ रहे थे। मार्ग में ऐरावत पर चढ़े देवराज इन्द्र मिले । दुर्वासा जी ने उन्हें त्रिलोकाधिपति समझकर भगवान के प्रसाद की माला दी, मगर इन्द्र ने ऐश्वर्य के मद से उसका अनादर करते हुए उसे ऐरावत के मस्तक पर डाल दिया ऐरावत ने उसे सूँड़ में लेकर पैरों से कुचल डाला। इससे दुर्वासा जी ने अत्यन्त क्रोधित होकर शाप दे दिया कि तू तीनों लोगों सहित शीघ्र ही श्रीहीन हो जाएगा। फलस्वरूप कालान्तर में दानवों ने अपने तीखे शस्त्रों से देवताओं को पराजित कर दिया। उस युद्ध में बहुतों के तो प्राणों पर ही बन आयी थी। वे रणभूमि में गिरकर फिर उठ न सके। तीनों लोक तथा स्वयं देवराज इन्द्र भी श्रीहीन हो गए थे। यहाँ तक कि यज्ञ आदि धर्म-कर्मों का भी लोप हो गया था। यह दुर्दशा देखकर इन्द्र ,वरु आदि देवतागण सुमेरु के शिखर पर स्थिर ब्रह्मा जी की सभा में गए। ब्रह्मा जी महेश जी और देवताओं को साथ लेकर भगवान अजित (बिष्णु) के निजधाम बैकुण्ठ में गे।

समस्त देवताओं के साथ देवाधिदेव भगवान शंकरजी और परम पिता परमेश्वर ब्रह्माजी के त्रिलोकीनाथ भगवान विष्णु की स्तुति करने पर पूर्वानुसार जीवन-शक्ति प्रदान करने हेतु अमृत की प्राप्ति के लिए भगवान विष्णु ने देवताओं और दानवों को मिलकर समु्द्र-मन्थन करने का आदेश दिया। तदनुसार उस मन्थन के फलस्वरूप आयुर्वेद के प्रवर्तक और यज्ञभोक्ता भगवान के अंशावतार भगवान धन्वन्तरि अपने हाथों में अमृत से भरा हुआ कलश लेकर प्रकट हुए। उस अमृत के कलश को दानवगण ले भागे। चूँकि दानवों के अमर हो जाने से जग का अमंगल ही होता, इसलिए दानवों को अमृत-पान का अनाधिकारी समझकर भगवान विष्णु ने मोहनी रूप धारण कर के उनसे अमृत का घड़ा ले लिया और वह अमृत देवताओं को पिला दिया, जिससे वे पुनः जीवन-प्रदायक शक्ति प्राप्त कर के अमर हो गए। जिस समय भगवान देवताओं को अमृत पीला रहे थए, उसी समय राहु नामक एक दानव देवता का वेश बनाकर उनके बीच में आ बैठा और उनके साथ वह भी अमृत पी गया । तत्काल सूर्य और चन्द्रमा द्वारा पोल खुलते ही भगवान ने चक्र से राहु का सिर काट डाला। अमृत का संसर्ग न होने से उसका धड़ नीचे गिर गया, किन्तु सिर देवताओं के समान अमर हो गया, जिसे ब्रह्मा जीने ग्रह ना दिया।

उपर्युक्त प्रसंग से तो यही भावार्थ स्पष्ट होता है कि अमृत वस्तुतः जीवन-प्रदायक शक्ति है और स्वास्थ्य ही जीवन है। अमृत का शब्दार्थ होता है-

(1) जीवित अथवा जो मरा न हो।
(2) मरणरहित अथवा जो न मरा हो।
(3) समुद्र मंथन से निकले चौदह रत्नों में से एक पीयूष सुधा।
(4) जन / पानी।
(5) देवता।
(6) इन्द्र
(7) सूर्य
(8) शिव ।
(9) पारा।
(10) धन्वन्तरि।
(11) उड़द।
(12) सोना।
(13) घी।
(14) दूध
(15) अन्न / अनाज।
(16) विष।
(17) बच्छनाग।
(18) धन।
(19) मुक्ति ।
(20)
(21) अरत्व।
(22) सोमरस।
(23) भोजन / आहार।

इसी प्रकार सुधा का शाब्दिक अर्थ होता है।
(1) अमृत।
(2) जल।
(3) दूध
(4) पृथ्वी / धरती।
(5) मकरन्द।
(6) गंगा।
(7) अर्क / रस।
(8) मरोड़पली।
(9) आँवला।
(10) थूहर।
(11) शालपर्णी।
(12) बिजली।
(13) विष।
(14) चूना।
(15) हर्र।
(16) ईंट ।
(17) गिलोय।
(18) रूद्र की पत्नी।
(19) एक प्रकार का वृत्त।
(20) पुत्र।
(21) लधू।
(22) मधु।
(23) घर।
(24) शाब्दिक दृष्टिकोण से पीयूष का अर्थ होता है।
(1) अमृत / सुधा।
(2) दूध।
(3) जन्म से सात दिन तक का दूध।
(4) उपरोक्त संदर्भों का सारांश यही है कि जन्म से सात दिन तक का दूध या पीयूष, दूध अथवा सुधा ही अमृत है। व्यापक दृष्टिकोण से हम सम्पर्ण जीवन-तत्वों, पोषक आहारों एवं पौष्टिक खाद्य पदार्थों को अमृत नाम से पुकार सकते हैं। अर्थात् स्वास्थ्य-रक्षक युक्ति ही अमृत है। शरीर स्वस्थ हो, तो मन प्रसन्न रहता है, मन प्रसन्न हो, तो तन स्वस्थ रहता है, और तन-मन दोनों प्रसन्न व स्वस्थ हो तभी जीवन सुखी, समृद्धिशाली, शांतिपूर्ण व मंगलमय होता है। अतएव सुख-शांति, कुशल-मंगल, आनन्दमय की रक्षा करना नितान्त आवश्यक है।

स्वास्थ्य का शाब्दिक अर्थ होता है- स्वस्थ, नीरोग, या तन्दुरूस्त। स्वास्थ्य शब्द “स्व” और “अवस्था” नामक दो शब्दों से मिलकर बना है। “स्व” का अर्थ होता है अपना, निज का या स्वयं का। प्राप्य धन, स्वत्व अथवा स्वामित्व का भावार्थ प्रकट करता है। “अवस्था” का अर्थ होता है- दशा, हालत, स्थिति,समय, काल, आयु,उम्र, वेदांत दर्शन, निरुक्ति, स्मृति और कामशास्त्र के अनुसार मनुष्य की क्रमशः चार, छह, आठ और दस अवस्थाएँ होती है। अतएव व्यापक दृष्टिकोण से जिस स्थिति में शरीर असन्तुलित न हो, मानसिक बेचैनी न हो, विश्रामरहित न हो तथा अस्वाभाविक न हो उस स्थिति को स्वास्थ्य कहते हैं। दूसरे शब्दों में सुख-चैन, आराम, सन्तुलित एवं स्वाभाविक जीवन को स्वस्थ जीवन कहते हैं। अर्थात जैसे हमें होना चाहिए, यदि वैसे हैं, तब हम स्वस्थ्य हैं और इसके विपरीत जैसे हमें होना चाहिए, यदि वैसे नहीं हैं, तब हम अस्वस्थ हैं। हम जीवन में जो कुछ भी कहते हैं, वह शारीरिक बल पर ही करते हैं। फलतः शारीरिक बनावट जितनी अधिक मजबूत, स्वस्थ तथा बढ़िया रहेगी, हमारा जीवन उतना ही अधिक सुख-समृद्धिशाली और दीर्घायु होगा। इसलिए हमें अपनों के स्वास्थ्य की रक्षा का प्रयत्न जन्म से ही प्रारम्भ करना चाहिए।

न केवल वनस्पतियों को, वरन् मशीनों को भी ऊर्जा (आहार)की आवश्यकता होती है। जलयान, थलयान, वायुयान ही नहीं, अन्य कोई भी मशीन हो, यदि चलाना है, तो उसे उर्जा (आहार) देनी ही पड़ेगी। वह चाहे मिट्टी के तेल का हो या फिर डीजल, पेट्रोल, कोयले, बिजली आदि किसी का, उसके बिना मशीन चलेगी, पेट्रोल, कोयले, बिजली आदि किसी का, उसके बिना मशीन चलेगी ही नहीं। रिक्शा तथा पैरगाड़ी को चलाने केलिए मानवशक्ति की और टाँगा तथा बैलगाड़ी को चलाने के लिए पशुशक्ति की आवश्यकता होती है। अर्थात् किसी को भी चलाने के लिए किसी-न-किसी प्रकार की ऊर्जा अथवा आहार अनिवार्य है। पेड़-पौधों का आहार उपजाऊ भूमि, हवा, धूप, खुला आकाश तथा बाढ़-पानी है। अच्छे पौधों को पूर्णाय देने के लिए उन्हें उपयोगी बनाने के लिए तथा उनसे फूल-फल प्राप्त करने के लिए जल-वायु, धूप-खाद आदि आहार देना नितान्त आवश्यक है। जलचर, थलचर एवं नभचर इत्यादि प्रत्येक प्राणी को अपनी जीवन-रक्षा के लिे प्रकृति ने उन्हें इतनी बुद्धि दी है कि वे जैसे-तैसे अपनी आवश्यकतानुसार अपना भोजन तलाश ही लेते हैं। किसी को घास चाहिए तो किसी को मांस। किसी को कीड़े मकोड़े चाहिए, तो किसी को मनुष्य का खून। किसी को जिन्दा चाहिए तो किसी को मुर्दा। जिनको मुर्दा चाहिए, उन्हें प्रकृति ने अपेक्षाकृत अत्यधिक तेज आँख दी है, ताकि वे दूर से ही अपने आहार को देख सकें और जिन्हें जिन्दा चाहिए, उन्हें प्रकृति ने उतनी बल-बुद्धि दी है, ताकि वे अपना शिकार मारकर खा सकें। बच्चा चाहे किसी का भी हो, जब तक गर्भ में रहता है, माता के शरीर से आहार प्राप्त करता रहता है। जन्म लेते ही वह माता के शरीर पर मुँह मारने लगता है। प्रकृति माता के स्तन में दूध पैदा कर देती है और बालक बिना सिखाये स्तन से दूध पीना आरम्भ कर देता है।

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